सफेद झूठ होगा मेरा यह कहना कि
तुम्हारे आने से पहले
दिन खाली-खाली थे और रातें सूनी;
यह कहना कि
तुम्हें जानकर हीं मैंने जाना हैं ज़िंदगी को,
कि तुम आई
तभी धड़कनें उपजीं, साँसें कौंधीं, रगों में रक्त बह निकला...
मेरे शब्द गिर पड़ेंगे
कौड़ियों की तरह,
अगर मैं बोल दूँ कि
तुमने हीं हाड़-माँस में फूँके हैं प्राण...
यादों पर पड़े पदचिन्ह गवाही देंगे
कि मैं तुम्हें रख रहा हूँ धोखे में..
तुम कभी न कभी गुजरे नक्षत्रों को उतारोगी हथेली पर
और किस्मत की लकीरों पर दौड़ पड़ोगी उलटे पाँव..
टकराओगी सच से
और पिघल जाएगा मेरे सच का मोल..
इसलिए खुद कहता हूँ-
तुम्हारे आने से पहले भी
ज़िंदा था मैं,
जान चुका था ज़िंदगी के उतार-चढाव..
ज़िंदा था मैं,
लेकिन सुलगती साँसों की आंच पर चढे काठ की हांडी के मानिंद..
मेरे दिन लबरेज थे चंद तारों से
और रातों में जलन थी दावानल की;
दर-ओ-दीवार नाखूनों की छीलन से नुचे-खुचे थे
और सीने में बसते थे......... बस ज्वार-भाटे
तुमने प्राण नहीं फूँके,
बल्कि पेट के बल सरकते मेरे अस्तित्व में
जड़ दी है रीढ...
प्रेम की रीढ..
शून्य से ऊपर खींच ले जाना अगर प्रेम है
तो अनंत तक धंस चुके मेरे ख्वाबों को तुम्हारा अवलंब
क्या कहा जाएगा-
युग निर्धारित करे!!!
- Vishwa Deepak Lyricist
3 comments:
प्रेम की रीढ.. अति सुन्दर लिखा है..
विश्वसनीय !
बहुत खूब ... शब्दों के जाल से उठता प्रेम ... कोरी लफ्फाजी ही तो प्रेम नहीं ...
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