Saturday, January 21, 2012

उग-सा आया

जभी चाहा तभी मैं उग-सा आया,
हटा के पत्थरों को उठ-सा आया,
तुम्हारे नाखूनों के उन्स भर से
ज़मीं की गैरियत को उकसा आया।

बहुत सब्जा,
बहुत सब्जा,
बहुत समझा कि अब सब्जा
की है बारी इस सहरे में
बहुत समझा कि सपनों की
है तैयारी दुपहरे में,
बहुत समझा कि माटी पे
लकीरें हैं लगावट की,
नहीं समझा कि मैं बस हूँ
कतारों में सजावट की..

जभी चाहा
जभी चाहा मुझे वो चुग-सा आया..


तुम्हारे नाखूनों के उन्स भर से
ज़मीं की गैरियत को उकसा आया।

बहुत उबला,
बहुत उबला,
बहुत उजला-सा ये उबला
जो है आँसू किनारों में
बहुत उगला है आँखों ने
नमक-सा हर गरारों में,
बहुत उजड़ा हूँ मैं तो अब
जड़ों में इस मिलावट से,
नहीं उबरा हूँ नस-नस में
ज़हर वाली लिखावट से..

जभी चाहा
जभी चाहा लबों पे टुक-सा आया..


तुम्हारे नाखूनों के उन्स भर से
ज़मीं की गैरियत को उकसा आया।

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत उगला है आँखों ने
नमक-सा हर गरारों में,
बहुत उजड़ा हूँ मैं तो अब
जड़ों में इस मिलावट से,
नहीं उबरा हूँ नस-नस में
ज़हर वाली लिखावट से..

बहुत सुन्दर .. अच्छी रचना

कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

विश्व दीपक said...

संगीता जी, आप कह रही हैं तो चलिए हटा देता हूँ :)

और हाँ धन्यवाद....

Amrita Tanmay said...

बहुत सुन्दर लिखा है ..अच्छी लगी..

vidya said...

बहुत खूब...
कुछ अलग सी लगी आपकी रचना...

सदा said...

वाह ...बहुत खूब ।

दिगम्बर नासवा said...

तुम्हारे नाखूनों के उन्स भर से
ज़मीं की गैरियत को उकसा आया ...

बहुत खूब ... जमीन की गैरियत को उकसाया तो अपना अहम आप ही जागेगा ...