Monday, October 05, 2009
चुपचाप
मैं चुपचाप फिरता हीं रहा!
ना चाँद को कोई थपकी दी,
ना दूब की तोड़ी कमर,
ना साँस को दी आहटें,
ना नींद की खींची चुनर,
बस एक तुम्हारे ख्वाब में-
चुपचाप फिरता हीं रहा।
मैं जहाँ था, उस जहां में चाहतों की चाशनी थी,
पक रही थी, रात जिस में ,मीठी-मीठी चाँदनी थी,
साँवला-सा आसमां था,
कुछ-कुछ तेरी आँखों-सा था,
और उसकी तलछटी में
ख्वाब कोई बुन रहा था।
सौंधी-सौंधी शबनमी-सी,
पीली-पीली रोशनी-सी,
मिट्टी दिल की घुल रही थी,
धुल रहा था मैं वहीं पर
तू वहीं पर खुल रही थी।
क्या कहूँ मैं, क्या हुआ जब, शब तले हम दो मिले,
यूँ लगा कि, बस तुम्हीं से, तारों के हैं काफ़िले,
मनचला जो आसमां था,
सब तुम्हीं को दे रहा था।
गीली-गीली संदली-सी ,
भीनी-भीनी अंबरी-सी,
खुशबू छन के उड़ रही थी,
मुड़ रहा था दिन वहीं पर,
रूत सुबह से जुड़ रही थी।
मैं चुपचाप फिरता हीं रहा।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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7 comments:
दीपक जी को प्रणाम,
आपकी संवेदना और शुभकामनायें मन को छू गयीं। अभी ठीक हूं...फिलहाल तो हास्पिटल में ही बांध कर रखा हुआ है। लेकिन सुधार है।
अभी "मेरे खुदा" का जादू घेरे हुये है। आश्चर्य है कि मैं अभी तक इस जादू से अछूता था।
और फिर इस "चुपचाप" की बुनाई तो बेमिसाल है। ये मेरा ही नुकसान था कि इतने दिनों तक मैं आपकी रचनाओं से अनजान था...अब नहीं!!!
मेजर साहब,
अंतर्नाद पर आपकी टिप्पणी को देखकर कह नहीं सकता कि मुझे कितनी खुशी हुई है। आप जल्द हीं पूरी तरह स्वस्थ हो जाएँ यही कामना करता हूँ।
हाँ, हम लोग ऐसे हीं गाने बनाने की कोशिश करते रहते हैं। अभी जो आपने "चुपचाप" कविता पढा है, वह भी गाना में परिणत हो रहा है। बस कुछ दिनों की बात है :)
आपको कविता पसंद आई, इसकी मुझे बेहद खुशी है। दर-असल मैं शुरू-शुरू में गज़लें भी लिखा करता था,(अंतर्नाद पर आपको ऐसे कुछ प्रयास दिख जाएँगे) लेकिन लोगों ने उनको खारिज़ कर दिया, इसलिए मैंने अतुकांत कविताओं की राह पकड़ ली। आप अगर ऐसे हीं प्रोत्साहित करते रहें तो हो सकता है कि मैं फिर से गज़लों की ओर मुड़ जाऊँ। बस आपका स्नेह चाहिए...
-विश्व दीपक
गीली-गीली संदली-सी ,
भीनी-भीनी अंबरी-सी,
खुशबू छन के उड़ रही थी,
मुड़ रहा था दिन वहीं पर,
रूत सुबह से जुड़ रही थी।
मैने भी आज शायद पहली बार इस ब्लाग को देखा है । और इस अद्भुत रचना ने मन को छू लिया सुन्दर उपमाओं से सजी संवरी कविता के लिye bयधाई और शुभकामनायें
निर्मला जी,
आपको मेरी रचना पसंद आई, इसके लिए मैं अपने-आप को खुशकिस्मत समझता हूँ।
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद,
विश्व दीपक
बड़े दिन हुये दीपक साब...कुछ और तो लगाइये।
और इस "चुपचाप" की धुन तैयार हो गयी क्या?
हो गयी हो तो मुझे जरा भेजियेगा।
क्या कहूँ मैं, क्या हुआ जब, शब तले हम दो मिले,
यूँ लगा कि, बस तुम्हीं से, तारों के हैं काफ़िले,
मनचला जो आसमां था,
सब तुम्हीं को दे रहा था।
गीली-गीली संदली-सी ,
भीनी-भीनी अंबरी-सी,
खुशबू छन के उड़ रही थी,
मुड़ रहा था दिन वहीं पर,
रूत सुबह से जुड़ रही थी।
मैं चुपचाप फिरता हीं रहा।
सुबह सुबह एक नशा सा हुआ है......देखना है कब तक इसका हेंग ओवर रहेगा ....तुम गजब हो यार
गौतम साहब,
कहाँ गए आप? देखिए अंतर्नाद पे और भी नए पोस्ट आ चुके हैं :)
अनुराग जी,
चुपचाप को पसंद करने के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया। जो भी कुछ "गज़ब" का मैं लिख लेता हूँ वो सब आपकी दुआ से हीं संभव होता है।
-विश्व दीपक
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