Thursday, October 29, 2009

बेतरतीब-से कुछ ख्यालात

यह भी तो हद है कि हद जानता नहीं मैं,
ज़िंदा हूँ और ज़िंदगी को मानता नहीं मै।

पल हीं में राख कर दूँ मैं सूरज के शरारे,
कुव्वत है फिर भी बेवजह ठानता नहीं मैं।

अब होश है तो वक्त की भी खैर-खबर लूँ,
ऐसे तो दिन-महीने भी पहचानता नहीं मैं।

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क़ज़ा आना तो यूँ आना कि दुनिया को खबर न हो,
बिना मतलब की बातों से तेरा जीना दुभर न हो।

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खुदा मेरी खुदी का जो तलबगार हो गया,
बिना कहे कोई मेरा मददगार हो गया।

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इश्क उन आँखों को ज़ीनत देता है,
गुफ़्तगू की हद तक हसरत देता है।

मैं नज़रें कभी फ़ेरता हीं नहीं,
भरसक वो मुझे मोहलत देता है।

बस बन जाते हैं सच्चे-से बहाने,
वक्त दोस्तों को ये बरकत देता है।

नब्ज थमते हीं सुकूँ आ जाएगा,
होश ऐसे किधर फुरसत देता है।

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करीने से मुझे सोचे , गया हर वक्त याद हो,
तभी तो जां मिले मुझको, तबियत मेरी शाद हो।


-विश्व दीपक

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