Sunday, April 18, 2021

समाज

प्रेम समाज से, समाज के उस वर्ग से जिसे समाज कहना जायज हो। खरपतवारों की भीड़ खा जाती है ज़मीन को और पास खड़े पौधे भी बनने लगते हैं ठूंठ। इसलिए सावधान!!!!! जिन सबने पंखों के लालच में नोंच डाली हैं अपनी जड़ें - उन्हें उनका क्षणभंगुर आसमान मुबारक! मैं अपनी चहारदीवारी में खुश हूँ।

प्रेम

तुम्हारी आँखों में देखता रहूँ और रो दूँ - प्रेम इस हद से शुरू होना चाहिए बाहर की बेढ़ब दुनिया तुम्हारी आँखों से छनकर दिखती है जब - बचता है केवल सच , सुनहला सच मैं अपने आप में खोया हूँ कहीं, शब्द गुम हैं अंतर्मन की कंदराओं में - लिख देना आसान है, कह देना नितांत मुश्किल.... बस तुम समझ लिया करो जितना भी कुछ मुझसे चलकर तुमतक पहुँच न पाया वह सबकुछ तुम्हारी आँखों ने पढ़ा तो होगा हीं!!!!!!

द्वंद्व

कलम सोच रही है - कुछ कहूँ। पन्ने मुँह फुलाए हुए हैं- विचारों की चोट इन्हें बर्दाश्त नहीं। यह नया द्वंद्व है। कवि पहले यहाँ संभले तो उलझे समाज से।