Saturday, September 05, 2015

मेरे माधो


मेरे माधो बिछड़े जो उधो रे, मैं तो हुई बावरी,
जोगन बनी बिफरूँ मैं सखे पर, जोगी हुए क्या वो भी?
सच-सच बता,
बंशीवाला
फफक के यूँ रोए? गश ऐसा खाए?

हिलें-मिलें सबसे वो वहाँ पे, हँसी-ठट्ठा खूब हीं,
सूखा-सूखा पतझड़ है यहाँ पे, बची जली दूब हीं,
माटी चुभे,
अपनी मुझे,
जिऊँ मैं कैसे जो, बैरी भए माधो...

जाके कहो उनसे कि भले हीं लीला रचें लाखों संग,
बंशी टेरें मथुरा में मगर जब, रंगें दो लब मेरे रंग,
साँसें वो लें,
मेरे हीं से,
देखें बिरज मुझमें, चाहे नहीं आएँ..

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, March 04, 2015

हमारा शुद्ध-रूप है वह


तुम सीपी हो या शंख,
या हो असंख्य
मेरे अंदर..
.
तुमने जना है जिसे
वह मेरी हर ’कृति’ से विशाल है,
वह नोंक है कलम की,
सौंदर्य है सृष्टि का,
मेरे अंतस का सुर-ताल है...
.
हम दोनों का अंश?
या फिर
भविष्य की इस निधि
के अंश हैं हम?
हमारा शुद्ध-रूप है वह
और अपभ्रंश हैं हम...
.
शुक्रिया!
स्वाति, सीपी, शंख..
शुक्रिया असंख्य
इस अमृत के लिए...
.
हम दोनों अब
अणु बन
इस अमृत में पिघलेंगे...

- Vishwa Deepak Lyricist