यह भी तो हद है कि हद जानता नहीं मैं,
ज़िंदा हूँ और ज़िंदगी को मानता नहीं मै।
पल हीं में राख कर दूँ मैं सूरज के शरारे,
कुव्वत है फिर भी बेवजह ठानता नहीं मैं।
अब होश है तो वक्त की भी खैर-खबर लूँ,
ऐसे तो दिन-महीने भी पहचानता नहीं मैं।
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क़ज़ा आना तो यूँ आना कि दुनिया को खबर न हो,
बिना मतलब की बातों से तेरा जीना दुभर न हो।
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खुदा मेरी खुदी का जो तलबगार हो गया,
बिना कहे कोई मेरा मददगार हो गया।
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इश्क उन आँखों को ज़ीनत देता है,
गुफ़्तगू की हद तक हसरत देता है।
मैं नज़रें कभी फ़ेरता हीं नहीं,
भरसक वो मुझे मोहलत देता है।
बस बन जाते हैं सच्चे-से बहाने,
वक्त दोस्तों को ये बरकत देता है।
नब्ज थमते हीं सुकूँ आ जाएगा,
होश ऐसे किधर फुरसत देता है।
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करीने से मुझे सोचे , गया हर वक्त याद हो,
तभी तो जां मिले मुझको, तबियत मेरी शाद हो।
-विश्व दीपक
Thursday, October 29, 2009
Monday, October 05, 2009
चुपचाप
मैं चुपचाप फिरता हीं रहा!
ना चाँद को कोई थपकी दी,
ना दूब की तोड़ी कमर,
ना साँस को दी आहटें,
ना नींद की खींची चुनर,
बस एक तुम्हारे ख्वाब में-
चुपचाप फिरता हीं रहा।
मैं जहाँ था, उस जहां में चाहतों की चाशनी थी,
पक रही थी, रात जिस में ,मीठी-मीठी चाँदनी थी,
साँवला-सा आसमां था,
कुछ-कुछ तेरी आँखों-सा था,
और उसकी तलछटी में
ख्वाब कोई बुन रहा था।
सौंधी-सौंधी शबनमी-सी,
पीली-पीली रोशनी-सी,
मिट्टी दिल की घुल रही थी,
धुल रहा था मैं वहीं पर
तू वहीं पर खुल रही थी।
क्या कहूँ मैं, क्या हुआ जब, शब तले हम दो मिले,
यूँ लगा कि, बस तुम्हीं से, तारों के हैं काफ़िले,
मनचला जो आसमां था,
सब तुम्हीं को दे रहा था।
गीली-गीली संदली-सी ,
भीनी-भीनी अंबरी-सी,
खुशबू छन के उड़ रही थी,
मुड़ रहा था दिन वहीं पर,
रूत सुबह से जुड़ रही थी।
मैं चुपचाप फिरता हीं रहा।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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