बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।
उसकी पलकों की सिलवटें
उघरने लगी हैं अब
और शायद
कौड़ी गिलाफ की
नुकीली हो गई है-
एक वफ़ादार ज़फ़ा के मानिंद,
आह! चुभती है बिस्तर में।
उस तकिये में
ठूँस-ठूँस कर भरी
काले फाहों की रूई
हो गई है
कोलतार का बदमिजाज चबुतरा,
जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।
कहते हैं
एक समय
वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और कोई
चादर बन
आ पड़ता था उस पर।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
6 comments:
वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और एक चादर आ पड़ता था उस पर।
बेहद उम्दा पेशकश है साहब!! ये पंक्तियां ज़िन्दगी का आईना हैं!!
बहुत सुन्दर रचना है।
अब वह
बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।
जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।
बेहतरीन सुंदर लिखा है
ohhhhhhh kitni ghari baat kahe di hai
ek aurat ki bebasi ki kahani .......
अच्छी कविता के लिये बधाई...
achchhi baat hai. anubhav se pagi hui
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