बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।
उसकी पलकों की सिलवटें
उघरने लगी हैं अब
और शायद
कौड़ी गिलाफ की
नुकीली हो गई है-
एक वफ़ादार ज़फ़ा के मानिंद,
आह! चुभती है बिस्तर में।
उस तकिये में
ठूँस-ठूँस कर भरी
काले फाहों की रूई
हो गई है
कोलतार का बदमिजाज चबुतरा,
जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।
कहते हैं
एक समय
वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और कोई
चादर बन
आ पड़ता था उस पर।
-विश्व दीपक ’तन्हा’