मेरी आँखों से कभी, खुद को यूँ देखा करो,
आईना मुझको बना,श्रृंगार आहिस्ता करो।
अपनी रूख को झेंपकर ,
मुझको लब पर लेपकर,
इश्क की चिंगारियों को,
सुर्ख इन क्यारियों को,
आह के रास्ते में ,कतरा-कतरा-सा करो,
आईना मुझको बना, श्रृंगार आहिस्ता करो।
लफ्ज़ सब हीं टांककर,
खनक मेरी आंककर,
प्यार की एक फूंक को,
गूंथकर हर हूक को,
डोलते झुमकों-सा , कान में चस्पां करो,
आईना मुझको बना,श्रृंगार आहिस्ता करो।
संग-संग बीती रैन में,
नम-से मेरे नैन में,
अपनी नाज़ौ-साज़ के
मेरे दिलनवाज़ के,
झूमते अक्स को,माथे की बिंदिया करो,
आईना मुझको बना, श्रृंगार आहिस्ता करो।
मेरी आँखों से कभी, खुद को जब देखा करो,
खुद को कितना चाहोगे, खुद से हीं पूछा करो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
2 comments:
मेरी आँखों से कभी, खुद को यूँ देखा करो,
आईना मुझको बना,श्रृंगार आहिस्ता करो।
बहुत ही दिल को भाने वाली रचना है यह ..शिंगार और प्रेम रस में डूबी हुई ..अच्छी लगी मुझे बहुत :)
दीपक बाबू,
नये तेवर?????? :-)
खूबसूरत्, सुन्दर श्रंगार
बहुत अच्ह लिखा है आपने
"मेरी आँखों से कभी, खुद को जब देखा करो,
खुद को कितना चाहोगे, खुद से हीं पूछा करो।"
बहुत सुन्दर
लगता है नाम में से "तनहा" जल्दी हटने वाला है :-) :-)
आमीन
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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