यह भी एक पुरानी कविता हीं है। आज यकायक इस पर नज़र गई तो सोचा कि क्यों न इसे औरों से शेयर किया जाए। दर-असल इसे एक गीत की तरह लिखा गया है और उम्मीद भी यही है कि एक न एक दिन इसे संगीत का सहारा मिलेगा। देखते हैं।
बेतहज़ीब कलह कर के
फिर
बेतरतीब ज़िरह कर के
फिर
बेतरकीब सुलह कर के
यूँ बानसीब अश-आरों में,
बनकर हबीब हम यारों मॆं,
खुशरंग ढंग जो रहते हैं,
बिंदास बोलकर हम उनको
अपनी हीं जिंदगी कहते हैं।
एक चाँद भरोसे जीने की,
एक काशी, एक मदीने की,
एक सीपी, एक नगीने की,
ना कभी...
ना कभी आरजू हममें पली,
हर दिल में जुदा हीं आग जली,
लेकिन अब तो
एक मर्ज़ है जो,
हम यार सभी,
गुलज़ार सभी,
एक नार-नवेली, अलबेली की
यादों में संग-संग बहते हैं,
हर करवट पर हीं लड़ते हैं,
इस लिए हीं तो,
हम यारों को
अपनी हीं जिंदगी कहते हैं।
उन नर्म धुंध की बस्ती में,
वादी की उथली कश्ती में,
फाहों की फुहड़ मस्ती में,
हम सभी.....
हम सभी फलक-सा ढलते थे,
बस अधखुली नींद में चलते थे,
लेकिन अब तो,
शब सर्द न क्यों,
हम सब मदहोश,
लिए जोश-खरोश,
बर्फानी साजिश, मीठी बारिश में
खुलेआम जंग-ए-रूत सहते हैं,
दो बूँद चाय पर मरते हैं,
इस लिए हीं तो
हम यारों को
अपनी हीं जिंदगी कहते हैं।
सफर के कोरे रोड़ों का,
लू के बेदर्द झकोरों का,
सौ दंश का, सौ हथौड़ों का,
जो तभी...
जो तभी न भाया जिक्र हमे,
थी यूँ टका-चैन की फिक्र हमें,
लेकिन अब तो,
यह राह हीं ज्यों,
हम सब के लिए,
बस ,लगे,. जिये,
सुनसान सड़क और चार बाईक,
हम निडर उमंग में दहते हैं,
पैसों पर पेट्रोल जड़ते हैं,
इस लिए हीं तो
हम यारों को
अपनी ही जिंदगी कहते हैं।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
Wednesday, August 12, 2009
Sunday, August 09, 2009
सुन ज़िंदगी
मैं आज लगभग दो साल पुरानी कविता यहाँ पेश करने जा रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ कि इसमें छुपी बात अभी पुरानी नहीं हुई होगी।
सुन जिंदगी, उफक से तू सूरज निकाल ले,
यह दिन गया, अगले का तू कागज निकाल ले।
बनकर मुसाफिर तू गई , इस दिन को छोड़ जो,
फिर आएगी इसी राह , सो अचरज निकाल ले ॥
यह फफकती मौत तेरे दर सौ बार आएगी,
तुझे संग ले हर बार हीं उस पार जाएगी।
नये जिस्म , नई साँसों में गढी तू होगी हमेशा ,
हर बार हीं नये जोश में तू अवतार लाएगी॥
कई रहजन , कई रहबर इस राह में होंगे,
तुझे पाएँगे, तुझे पाने की कुछ चाह में होंगे,
यूँ इश्क और हुश्न का खेल चलता रहेगा,
दुल्हे बदलेंगे, बाराती वही इस विवाह में होंगे।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
सुन जिंदगी, उफक से तू सूरज निकाल ले,
यह दिन गया, अगले का तू कागज निकाल ले।
बनकर मुसाफिर तू गई , इस दिन को छोड़ जो,
फिर आएगी इसी राह , सो अचरज निकाल ले ॥
यह फफकती मौत तेरे दर सौ बार आएगी,
तुझे संग ले हर बार हीं उस पार जाएगी।
नये जिस्म , नई साँसों में गढी तू होगी हमेशा ,
हर बार हीं नये जोश में तू अवतार लाएगी॥
कई रहजन , कई रहबर इस राह में होंगे,
तुझे पाएँगे, तुझे पाने की कुछ चाह में होंगे,
यूँ इश्क और हुश्न का खेल चलता रहेगा,
दुल्हे बदलेंगे, बाराती वही इस विवाह में होंगे।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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