Sunday, August 09, 2009

सुन ज़िंदगी

मैं आज लगभग दो साल पुरानी कविता यहाँ पेश करने जा रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ कि इसमें छुपी बात अभी पुरानी नहीं हुई होगी।

सुन जिंदगी, उफक से तू सूरज निकाल ले,
यह दिन गया, अगले का तू कागज निकाल ले।
बनकर मुसाफिर तू गई , इस दिन को छोड़ जो,
फिर आएगी इसी राह , सो अचरज निकाल ले ॥

यह फफकती मौत तेरे दर सौ बार आएगी,
तुझे संग ले हर बार हीं उस पार जाएगी।
नये जिस्म , नई साँसों में गढी तू होगी हमेशा ,
हर बार हीं नये जोश में तू अवतार लाएगी॥

कई रहजन , कई रहबर इस राह में होंगे,
तुझे पाएँगे, तुझे पाने की कुछ चाह में होंगे,
यूँ इश्क और हुश्न का खेल चलता रहेगा,
दुल्हे बदलेंगे, बाराती वही इस विवाह में होंगे।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

No comments: