Wednesday, May 14, 2008

नुक्ता

कहते हैं-
नुक्ते के फेर से
खुदा जुदा हो जाता है;
होते हैं ऎसे कई नुक्ते
आम जिंदगी में भी।

मोलभाव करने वाला
एक इंसान
होता है
बिहारी
और
खुलेआम लुटने वाला-
सभ्य शहरी,
यहाँ नुक्ता है-
सभ्यता...वास्तविक या फिर छद्म।
संसद से सड़क तक
जो छला जाता है
वह कहलाता है-
नागरिक
और जो
पहचानता है छलिये को
उसे बागी करार देते हैं सभी,
यहाँ नुक्ता?
एक के लिए मौन
तो दूसरे के लिए
अधिकार!
ऎसे हीं होते हैं
कई नुक्ते-
कहीं कचोटते
तो कहीं चमकते।

अत:
नुक्ता केवल एक नुक्ता
या एक बिंदु नहीं है,
एक रेखा है,
जो करती है अलग-
दिखावे को सच्चाई से,
एक भाव है,
जो बदल देता है
नज़रिया
जबकि गिनाते रह जाते हैं
लोग
दोष नज़ारे का।


यह नुक्ता
होता है हर नज़र में,
हर ईमां में होता है,
और सच पूछिए तो
हरेक इंसां में होता है..
लेकिन
हम बस
खुदा और जुदा में हीं
ढूँढते रह जाते हैं।



-विश्व दीपक 'तन्हा'

2 comments:

गिरिराज जोशी said...

क्या ग़ज़ब बात कहे हो यार!

मुझे बेहद पसंद आया... मैं भावों को बेवजह ग़ज़ल, गीत, छंद... इत्यादि में गढ़ने की बजाय इस प्रकार सधारण तरीके से कह देने की कला को अधिक कठिन एवं उपयुक्त मानता हूँ...यह तरीका सीधे दिल को छूता है...


संसद से सड़क तक
जो छला जाता है
वह कहलाता है-
नागरिक

हालांकि नागरिक की यह परिभाषा पहले भी दी जा चुकी है.. मगर फिर भी जिस प्रकार आपने नुक्ता का स्थान बताया है... कमाल है!

बधाई स्वीकार करें।

- गिरिराज जोशी "कविराज"

विपुल said...

बहुत अच्छे तन्हा जी...! नुक्ता भी क्या चीज़ है यह आपकी कविता को पढ़कर जाना.. शैली अत्यंत स्वाभाविक .. अपनी बात को कहने में शत-प्रतिशत सफल हुए आप !
बहुत अच्छी कविता... बधाई !