कभी दंडकारण्य में विचरते थे-
दैत्य-दानव,पिशाच!
वे
अनगढे-से
अकारण हीं
विकराल रूप धरते थे,
खर-खप्पर,कृपाण-कटार का
दंभ भरते थे,
आप हीं असहज-असह्य थे,
परंतु दूसरों पर
अट्टहास करते थे।
कहते हैं-
वह दंडकारण्य-
देवताओं हेतु भी दुर्गम था,
परंतु
दुर्भाग्य कि
पंचवटी और विन्ध्याचल के मध्य
सेतु था वह।
वहाँ ,
दो तपोभूमियों के मध्य,
असुरों ने
अधिकारवश
अधर्म के शूल बोए थे।
साधु-
जो गुजरते थे,
पथ के कंटक चुन जाते थे,
परंतु पथ पर अधिकार जमाते न थे,
पथ से भयभीत थे,
परंतु पथभ्रष्ट न थे,
उन्हीं
उत्तर या दक्षिण के तपोभूमियों के थे,
परंतु अरण्य से द्वेष न रखते थे।
और वहीं
कुमति असुर
सौभाग्य और दुर्भाग्य
की परिभाषा से भी
अनभिज्ञ थे।
उसी दंडकारण्य में-
कभी धर्म ने भी पाँव धरे थे,
इतिहास कहता है कि
किन्हीं खर-दूषण असुरों का
एक राम ने वध किया था,
आश्चर्य यह कि
उस राम ने
तेरह वर्ष
उस वन में हीं
व्यतीत किये थे,
मान्यता है कि वह राम
उत्तर का था,
परंतु महत्वपूर्ण यह है कि
वह पथभ्रष्ट न था,
पथप्रदर्शक था।
वह दंडकारण्य-
फिर भी "दंडक" हीं रहा,
दो तपोभूमियों के मध्य
एक तपोवन न बन सका,
क्योंकि कुछ असुर,
असुर हीं रहे
और वह भी अनभिज्ञ-से।
वही दंडकारण्य,
सिकुड़कर अब
"महाराष्ट्र" कहलाता है,
और
आह! अब भी
कुछ राक्षस-"राज" विचरते हैं वहाँ
और दुर्गति यह कि
अब भी
"बाल"-सुलभ कृत्य करते हैं।
अत: निस्संदेह हीं
"उत्तर" का कोई अन्य राम
वर्षों से उस अरण्य में
नक्षत्रों के मेल की
राह तक रहा है।
लोकमत है कि
इतिहास स्वयं को दुहराता है!!!!
-विश्व दीपक 'तन्हा'
पंचवटी आंध्र-प्रदेश में "भद्राचलम" के समीप है और विन्ध्याचल उत्तर प्रदेश के "मिर्ज़ापुर" जिले में अवस्थित है। "दंडकारण्य" पूरे बस्तर (छत्तीसगढ), उड़ीसा, मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। भूगोल की माने तो ये हिस्से इन दोनों तपोभूमियों के मध्य हीं आते है।
Friday, March 07, 2008
Wednesday, March 05, 2008
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!
अंतिम वर्ष का छात्र हूँ। इसलिए अपने संस्थान ( I.I.T. kharagpur) एवं अपने छात्रावास से विदा लेना , नियति हीं है। इसी अवसर पर अपने दिल के कुछ उद्गार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!
खिड़की, दरवाजों पर पड़े
इसकी यादों के जाले
संग लिए,
गलियारे में आते-जाते
दिन के उजाले का
रंग लिए,
टैरेस के पीपल-नीचे
जगे सपनों के निराले
ढंग लिए,
कई सौ साँसों में सालों
इसने जो पाले वो
उमंग, लिए,
चल दिया दूर-
मैं बदस्तूर !
क्या कहूँ मैं?
अब इस दिल ने
संजोए कई सारे हीं गम हैं!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं !!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!
बेलाग दिया जो हमको
हँसी-खुशी के कई उन
खातों को,
फूलों की बू-सी कोमल
दरो-दीवार की रूनझून
बातों को,
सब्ज-लाँन कभी धूल
और यारों की गुमसुम
रातों को,
बेबात युद्ध फिर संधि,
ऐसे अनगढे खून के
नातों को,
कर याद रोऊँ,
इन्हें कहाँ खोऊँ?
क्या कहूँ मैं?
रेशम-से वो पल हीं
नई राह में मेरे हमदम है!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
५-०३-२००८
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!
खिड़की, दरवाजों पर पड़े
इसकी यादों के जाले
संग लिए,
गलियारे में आते-जाते
दिन के उजाले का
रंग लिए,
टैरेस के पीपल-नीचे
जगे सपनों के निराले
ढंग लिए,
कई सौ साँसों में सालों
इसने जो पाले वो
उमंग, लिए,
चल दिया दूर-
मैं बदस्तूर !
क्या कहूँ मैं?
अब इस दिल ने
संजोए कई सारे हीं गम हैं!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं !!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!
बेलाग दिया जो हमको
हँसी-खुशी के कई उन
खातों को,
फूलों की बू-सी कोमल
दरो-दीवार की रूनझून
बातों को,
सब्ज-लाँन कभी धूल
और यारों की गुमसुम
रातों को,
बेबात युद्ध फिर संधि,
ऐसे अनगढे खून के
नातों को,
कर याद रोऊँ,
इन्हें कहाँ खोऊँ?
क्या कहूँ मैं?
रेशम-से वो पल हीं
नई राह में मेरे हमदम है!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
५-०३-२००८
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