नुक्ते के फेर से
खुदा जुदा हो जाता है;
होते हैं ऎसे कई नुक्ते
आम जिंदगी में भी।
मोलभाव करने वाला
एक इंसान
होता है
बिहारी
और
खुलेआम लुटने वाला-
सभ्य शहरी,
यहाँ नुक्ता है-
सभ्यता...वास्तविक या फिर छद्म।
संसद से सड़क तक
जो छला जाता है
वह कहलाता है-
नागरिक
और जो
पहचानता है छलिये को
उसे बागी करार देते हैं सभी,
यहाँ नुक्ता?
एक के लिए मौन
तो दूसरे के लिए
अधिकार!
ऎसे हीं होते हैंहोते हैं ऎसे कई नुक्ते
आम जिंदगी में भी।
मोलभाव करने वाला
एक इंसान
होता है
बिहारी
और
खुलेआम लुटने वाला-
सभ्य शहरी,
यहाँ नुक्ता है-
सभ्यता...वास्तविक या फिर छद्म।
संसद से सड़क तक
जो छला जाता है
वह कहलाता है-
नागरिक
और जो
पहचानता है छलिये को
उसे बागी करार देते हैं सभी,
यहाँ नुक्ता?
एक के लिए मौन
तो दूसरे के लिए
अधिकार!
कई नुक्ते-
कहीं कचोटते
तो कहीं चमकते।
अत:
नुक्ता केवल एक नुक्ता
या एक बिंदु नहीं है,
एक रेखा है,
जो करती है अलग-
दिखावे को सच्चाई से,
एक भाव है,
जो बदल देता है
नज़रिया
जबकि गिनाते रह जाते हैं
लोग
दोष नज़ारे का।
यह नुक्ता
होता है हर नज़र में,
हर ईमां में होता है,
और सच पूछिए तो
हरेक इंसां में होता है..
लेकिन
हम बस
खुदा और जुदा में हीं
ढूँढते रह जाते हैं।
-विश्व दीपक 'तन्हा'