मुकाम चल पड़ते हैं, जिस ओर रूख करती हो।
दर्पण छिला-छिला है,
दीवार अनसुने हैं,
पलछिन छिने हुए हैं,
लम्हें गिने-चुने हैं,
जो तुम नहीं तो देखो
तन्हाई हीं बुने हैं,
अघोर मेरे घर में
ये सपने हुए दुने हैं-
तुम चौखट से मेरे जाने कब घर में उतरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं , जिस और रूख करती हो।
पत्थर-कलेजा लेकर
इंसान कर दिया है,
ईमान ने तेरे मुझे
बदगुमान कर दिया है,
मेरी रूह को कभी का
हमनाम कर दिया है,
बाहों को तेरे जबसे
दरम्यान कर दिया है,
रिश्ते का रूप लेकर हीं रहबर तुम संवरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं, जिस ओर रूख करती हो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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