तन-उपवन के दो पनघट में, हैं रस के गागर भरे-भरे,
प्रतिपल पल्लवित इन पुष्पों के हर श्रृंगार हैं हरे-हरे,
ज्यों मृदुल मनोरम मलयों-से हैं उर पर पयोधि जड़े-जड़े,
मन-मदन को हर क्षण हर्षाते, कालिंदी-कूल कदंब ये बड़े-बड़े।
गर्वित इन वलयों के मानिंद, विधि-गेह मिलिंद की सुषमा है,
कृश-तनु पर धारित धरणी में, शत-शत रवियों की ऊष्मा है,
देवदारू-विटपों-सा अविचल शिखरों की श्यामल गरिमा है,
मानस के मुक्तों-सा मधुमय , मणि-मज्जित इसकी महिमा है।
निज गेह की अनुकृति निरख रहा, सप्तयति व्योम में भयभीत-सा,
वह नीलाम्बर निर्दोष हुआ, गौर-वर्ण जो सम्मुख गर्वित-सा,
शशि श्यामल होकर शोभित है, लगे श्वेत-रंग भी कल्पित-सा,
द्वि-व्योम धरे हैं चारू-चंद्र , जहाँ वितत व्योम है विस्तृत-सा।
कल-कल जल के तनु-सरवर में, सरसिज मनसिज-सा पुष्पित है,
उर पर उद्धृत पद्माकर में, द्वि-अब्ज पत्र-सा प्लावित है,
कलियों की कोमल काया पर, अधर-नेत्र अलिवृंद मोहित है,
तरूण-उपवन में मुखरित यह मदन, यौवन कानन में सिंचित है।
भव-भावों , प्रीत-पड़ावों से , हुआ हरित-हृदय स्पंदित जब,
धड़कन की ध्वनि पर धमनी हुई, लख कांत-प्रेम कल्लोलित जब,
लगे मंत्रमुग्ध-से मूर्त्त-अमूर्त्त, हुआ श्वासोच्छास सुवासित जब,
लिय तड़ित-तेज़ द्वि-तुहिनों मे, हुआ उर से उरज स्फुटित तब।
प्रतिपल पल्लवित इन पुष्पों के हर श्रृंगार हैं हरे-हरे,
ज्यों मृदुल मनोरम मलयों-से हैं उर पर पयोधि जड़े-जड़े,
मन-मदन को हर क्षण हर्षाते, कालिंदी-कूल कदंब ये बड़े-बड़े।
गर्वित इन वलयों के मानिंद, विधि-गेह मिलिंद की सुषमा है,
कृश-तनु पर धारित धरणी में, शत-शत रवियों की ऊष्मा है,
देवदारू-विटपों-सा अविचल शिखरों की श्यामल गरिमा है,
मानस के मुक्तों-सा मधुमय , मणि-मज्जित इसकी महिमा है।
निज गेह की अनुकृति निरख रहा, सप्तयति व्योम में भयभीत-सा,
वह नीलाम्बर निर्दोष हुआ, गौर-वर्ण जो सम्मुख गर्वित-सा,
शशि श्यामल होकर शोभित है, लगे श्वेत-रंग भी कल्पित-सा,
द्वि-व्योम धरे हैं चारू-चंद्र , जहाँ वितत व्योम है विस्तृत-सा।
कल-कल जल के तनु-सरवर में, सरसिज मनसिज-सा पुष्पित है,
उर पर उद्धृत पद्माकर में, द्वि-अब्ज पत्र-सा प्लावित है,
कलियों की कोमल काया पर, अधर-नेत्र अलिवृंद मोहित है,
तरूण-उपवन में मुखरित यह मदन, यौवन कानन में सिंचित है।
भव-भावों , प्रीत-पड़ावों से , हुआ हरित-हृदय स्पंदित जब,
धड़कन की ध्वनि पर धमनी हुई, लख कांत-प्रेम कल्लोलित जब,
लगे मंत्रमुग्ध-से मूर्त्त-अमूर्त्त, हुआ श्वासोच्छास सुवासित जब,
लिय तड़ित-तेज़ द्वि-तुहिनों मे, हुआ उर से उरज स्फुटित तब।
-विश्व दीपक