रिश्ते के धागे बाँध लिये।
फिर जुस्तजू को जबरन क्यों घसीटते हो।
________________________________
तपेदिक से लड़ती हड्डियों में,
साँसें भी फंसती , फटती हैं।
जहां के मानस पर लेकिन कोई खरोंच नहीं आती।
__________________________________
दो लम्हा हीं जिंदगी है,
एक करवट तू, दूजा आखिरी है।
शिकारा डाल रखा है माझी के भरोसे।
_________________________________
हथेली पर जब किसी और की मेंहदी सज़ती है,
वफा का हर सफ़ा पीला पड़ जाता है।
यकीनन वक्त हर किसी को तस्लीम नहीं करता।
__________________________________
वो कुरेदते हैं लाश के हर आस को,
कहीं इनमें बीते लम्हों का अहसास न हो।
एक जमाने में उन्हें हमारे ऎतबार पर हीं ऎतबार था।
__________________________________
लाख समझाया मुर्दों में जान नहीं आती,
फिर भी वो हमारे कब्र पर रोया करते हैं।
समझ का बांध शायद अश्कों को रोक नहीं पाता।
__________________________________
इश्क ने ऐसा जुल्म किया,
वो हमसे मिलने खुदा के दर पर आ गए।
पता घर का दिया था, खुदा का तो नहीं।
__________________________________
मत डाल शिकारा यहाँ , हर ओर है भंवर,
माझी है मजबूर , ना है साहिल की खबर।
पत्थर का समुंदर है, कश्ती टूट जाएगी।
__________________________________
सपनों के तार भी अब जुड़ते नहीं,
नज़र छिपती है , अपनी हीं नज़र से।
वक्त के तिनके हैं, घर तोड़कर आए हैं।
__________________________________
खंडहर में उसने कुछ बुत पाल रखे हैं,
अपनी नज़रों के सहरे से वो उन्हें रोज भिंगोता है।
रिश्तों की कैद साँसों को भी थमने नहीं देती।
__________________________________
ना हीं तू करीब है दम जुटाने के लिए,
ना हीं यादें करीब हैं गम लुटाने के लिए।
मुफलिस हूँ, बस जिये जा रहा हूँ।
__________________________________
कुछ साँस का सामान शर्तों पे जुटाते रहे,
एक मुश्त पस्त ना हुए, पसलियाँ सूद में जलाते रहे।
बेसब्र-सी थी जिंदगी, सब्र मौत का भी गंवाते रहे।
__________________________________
संकरे शहर में सकपकाता है सहर भी,
कब जाने सब का सूरज शब में गुम कहीं हो जाए।
यहाँ तो हर पेट की राह मृगमरीचिका बनी है।
__________________________________
बर्तनों-सा खाली पेट कतार में समेट कर, उनके घर,
धूप में पकती हुईं कुछ पथराई आँखें दिखीं।
जिंदगी मिलेगी मुर्दों को अफवाह उड़ी है शायद।
__________________________________
तेरे आसमां में गुम हुए मकबूल हो गए,
ऎ हूर दीदार-ए-माह में मशगूल हो गए।
मेरा साया है चाँद पर या तेरे ओठ का तिल है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
3 comments:
शब्दशिल्पीजी,
वाह! वाह! ही कहने का मन है आज ;)
त्रिवेणियाँ जो सबसे ज्यादा पसन्द आई -
लाख समझाया मुर्दों में जान नहीं आती,
फिर भी वो हमारे कब्र पर रोया करते हैं।
समझ का बांध शायद अश्कों को रोक नहीं पाता।
बधाई!!!
बहुत सुंदर त्रिवेणियाँ पढवायीं हैं आपने, आशा है कि आगे भी ऐसी उत्तम रचनायें पढवाते रहेंगे ।
साभार स्वीकार करें,
नीरज
यह विधा बहुत दिनों बाद पढी, आनन्द आ गया दीपक जी
त्रिवेणी सच में बहुत खूबसूरत है
"टुकड़ों में जी रहे थे तो,
रिश्ते के धागे बाँध लिये।
फिर जुस्तजू को जबरन क्यों घसीटते हो।"
बहुत खूब, बहुत अच्छा लिखा है
साभार
गौरव शुक्ल
Post a Comment