हर जीभ द्विगुणित हो जाये.
कहीं सरवर नभ में जो उभरे,
हर कद अशोक सा बध जाये.
पर, रत्नाकर में मंथन से,
निकला जो हलाहल जलतल से,
कौन उसका अब भागीदार बने,
कौन मौत का प्रथम शिकार बने,
है कौन जहां का शुभचिंतक ,
हर वार जो तन पर सह जाये.
नारी के रूप में हर घर में
शंकर ने जन्म तदैव लिया,
हर दर्द का उसने पान किया
घर को निज हित का दैव दिया.
जब पुरूष के नेत्र थे सूखे पड़े
बन बहन विदा हो रूला दिया,
जब जल से भी जीवन मिला नहीं
माँ बन निज रूधिर हीं पिला दिया,
जब बंधु भी साथ नहीं आये
प्रेयसी बन राह भी दिखा दिया,
जब बेटों में बंट गया जहां,
बेटी बन बेटा बना लिया.
कई रूप धरे यों नारी ने,
इस पूज्य,शुचि,सुविचारी ने,
इस जग का तारनहार बनी,
निज जग का पालनहार बनी.
पर अहा,हया न त्याग बहन,
है कलि कलुष,यह जान बहन,
नारी के नाम का मर्म न हर,
यूँ शर्म को अब बेशर्म न कर,
बुत तब बन जब जग देवल हो,
तज वसन,हर रूह जब अंबर हो,
शंकर बन,विष का दंश न बन,
कामिनी का इक अपभ्रंश न बन.
निस्तेज न हो अस्तित्व तेरा,
हर तत्व समाहित तुझमे है,
प्रकृति का इक संस्करण है तू,
ममत्व समाहित तुझमे है.
-तन्हा कवि(विश्व दीपक)
4 comments:
do shabd kahenge....
TOO GOOD
angrezi mein kaha hai,, bura na mane...
bahut khoob likhate hain aap.....
जब पुरूष के नेत्र थे सूखे पड़े
बन बहन विदा हो रूला दिया,
जब जल से भी जीवन मिला नहीं
माँ बन निज रूधिर हीं पिला दिया,
ye panktiyaan visheshkar achhi lagi.n
@~~~my~seacrets~~
dhanyawad mitr. Bura maanne ki to koi baat hi nahi hai.
@vivek
bas apkee dua hai.Meri kavitayein to aapki panktiyon ka nirantra rasaswadan karne ka hi fal hai .
dhanyawad.
mind blowing!!!!!!!!!!!!
realy worthfull analysis of sacred faminine.
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