उम्र हाय!
यह उम्र निगोड़ी,
उड़नखटोले पर जो बैठी,
बढती जाए थोड़ी-थोड़ी,
इस वसंत से उस वसंत तक,
मन के साथ करे बरजोरी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी।
सखियन के बाँहों में बाँहें,
डाल-डाल फिरती थी जो मैं,
कहाँ भला थिरती थी तो मैं,
एक थाल से दूजे थाल तक,
एक डाल से दूजी डाल तक,
उछल-उछल के, फुदक-फुदक के,
हवा संग गिरती थी तो मैं;
अब तो राम!
गया वह दौर,
मन उत है, पर इत है ठौर,
अब तो राम!
बस एक मलाल,
ना कहीं, पात, ना कहीं डाल,
चहुँ ओर इक लाख सवाल,
रिश्तों के रस्ते के अलावा,
उम्र ने कोई डगर नहीं छोड़ी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी।
आध-आध दर्जन भर मन की
सोच-वोच थी एक हीं जैसी,
ललक-लोच थी एक हीं जैसी,
मन जो भाए, कर जाती थीं,
मन का करके, तर जाती थीं,
मन की भांति हम सारी भी
नि:संकोच थीं एक हीं जैसी,
अब तो राम!
भय निर्भय है,
कौन हूँ मैं, यही संशय है,
अब तो राम!
हया है भारी,
जोश है मूर्छित , मैं बेचारी,
रह गई मैं, नारी की नारी,
अबला कर के अल्प-भाग्य से,
उम्र ने मेरी गाँठ है जोड़ी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी!!
अब तो इस विध हीं जीना है,
सोचती हूँ गरल पीना है,
लेकिन यह क्या....कैसा स्वर है,
मस्तिष्क कहता ....तुमको ज्वर है?
फिर क्यों , ऎसा सोच रही हो..
खुद को हीं खरोंच रही हो?
सुन रे नारी, सच बतलाऊँ,
तुमको सत्य की राह दिखाऊँ.....
"उम्र का क्या है,
एक संख्या है,
तब बढती, जब मन विह्वल हो,
भय का क्या है,
बस व्याख्या है,
मन देता, जब वह निर्बल हो|
नारी देख! तुझमें भी बल है,
तू पूरे घर की संबल है,
तो फिर भाग्य-भरोसे क्यूँ है,
अपने वय को कोसे क्यूँ है,
लोक-लाज का ध्यान हटा दे,
यौवन का अरमान हटा दे,
यौवन तो अब भी तुझमें है,
बस तुझको हीं संशय है...
संशय त्याग, खोल ले अंखियाँ,
देख तुझे, ढूँढे हैं सखियाँ !!!"
आह! आज के आज फिर से
आध-आध दर्जन भर मन में
एक हीं जैसी हूक उठी है,
वसंत है, कोयल कूक उठी है,
और वो देखो
शर्म की मारी
छिपी जा रही चोरी-चोरी,
उम्र हाय!
मेरी उम्र निगोड़ी!!
--विश्व दीपक ’तन्हा'