हर तरफ से हीं मुझपर है लानत पड़ी,
मय के आगोश में इस कदर डूबा हूँ,
अब तो नाजुक है मेरी हालत बड़ी।
ऎसी सोहबत पड़ी........
उनकी काफ़िर निगाहों ने तोड़ा मुझे,
इक झलक देकर आहों से जोड़ा मुझे,
कारवां से उठाकर तन्हाई दी,
हर पहर जाम की है जरूरत पड़ी।
ऎसी सोहबत पड़ी........
हूर-ए-जन्नत कहकर नवाजा उन्हें,
हर कदम हम-कदम-सा चाहा उन्हें,
यूँ सितम कर सितमगर ठुकरा गए,
अब तो जीने की हर एक चाहत मरी।
ऎसी सोहबत पड़ी........
वो तो है बेवफ़ा, उसने की है ज़फ़ा,
ये मेरा यार मुझसे है करता वफ़ा,
इस जहां की नज़र में यह कुछ भी रहे,
मेरी आँखों में इसकी है इज़्ज़त बड़ी।
ऎसी सोहबत पड़ी.......
दर्द-ए-दिल कितना भी दबाता हूँ पर,
जाम के साथ ये तो छलक जाता है,
हर जख्म को मिटा दूँगा वादा है यह,
इस जिगर को मिले तो मोहलत बड़ी।
ऎसी सोहबत पड़ी......
है खुदा तुमसे मुझको बस इतनी गिला,
है दिया क्यों इबादत का ऎसा सिला,
संगमरमर पर कालिख ऎसी पुती,
मुँह छिपाकर किनारे है कुदरत खड़ी।
ऎसी सोहबत पड़ी,
हर तरफ से हीं मुझपर है लानत पड़ी,
क्या कहूँ दोस्तों अपने बारे में मैं,
अब तो खुद से हीं मुझको है नफ़रत बड़ी।
-विश्व दीपक 'तन्हा'