Sunday, May 18, 2014

और आ गए प्रभु जी


प्रभु जी आएँगे,
चाशनी में गुड़ की रोटी डुबाएँगे,
गोद में बैठाकर हमको खिलाएँगे,
दिन तर जाएँगे ।

सदियों से आँखों में सपना था जिनका,
झटके से आँखों में उतरेगा तिनका,
मांझी बन तिनके को पार वो लगाएँगे,
काॅर्निया से रेटिना तक धंसते वो जाएँगे,
सच कर दिखाएँगे ।

देश क्या विदेश में भी धाक होगी उनकी,
लाल कृष्ण झुकेंगे, हालत यही "मुन" की,
चुटकी में देश से वो दुर्दिन मिटाएँगे,
हफ्ते में दुनिया के अव्वल हो जाएँगे,
दुश्मन थरथराएँगे ।

भगीरथ के डैडी हैं, माँ ने बुलाया है,
उनके सिवा जो भी है वो छलावा है,
सिंहासन है उनका, वही आ संभालेंगे,
राज कैसे करते हैं, आकर दिखाएँगे,
इतिहास बनाएँगे ।

हाथ हमने जोड़ा है,
बस एक भरोसा है,
प्रभु जी आएँगे,
दिन तर जाएँगे ।

- Vishwa Deepak Lyricist

साल भर पुरानी वह बात


साल भर पुरानी वह बात,
जिसकी उम्र महज एक साल है-
बड़ी हीं ताजी है।

मेरी ’बुक-सेल्फ’ की सबसे बोरिंग किताब में भी
भर गई थीं रंगीनियां...

आबाद हो चले थे
दिन-रात के कई ’अनाथ’ हिस्से..

नींद हो चली थी साझी
और ख्वाब पूरे..

अब बेफिक्री फिक्र देती थी
और फिक्र का बड़ा-सा बंडल
उतर गया था किन्हीं ’और’ दो आँखों में..
मेरे नाम के मायने भी बदल गए थे शायद..

तभी तो
भले पुकारा जाऊँ सौ बार;
चिढता न था...

सच में-
साल भर पुरानी वह बात,
जिसकी उम्र महज एक साल है-
बड़ी हीं ताजी है।

और हर पल जवां रखा है इसे
तुमने...
बस तुमने!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, March 09, 2014

तुम्हारा मौन


आँखें मूंदो और महसूस करो -
ज़िंदगी तुम्हारे दो शब्दों के बीच के अंतराल में
कुलाचें भर रही है,
खिड़कियाँ खुली हैं आमने-सामने की
और
बहुत कुछ अनकहा गुजर रहा है
दीवारों की सीमाएँ तोड़कर..

मैंने कुछ कहा नहीं है,
फिर भी
ध्वनियों की अठखेलियाँ हैं तुम्हारे सीने में
और
तुम्हारा मौन जादूगर-सा
शून्य से उतार रहा है शब्द
टुकड़ों में...

आँखें मूंदो और महसूस करो-
गले के इर्द-गिर्द छिल रही है
शब्दों की चहारदीवारी
और
कई अहसास सशरीर पहुँच रहे हैं
तुम्हारे-मेरे बीच...

सुनो!
संभालकर रख लो इन्हें...

ये अपररूप हैं प्रेम के.....

इन्होंने मृत्यु को जीत लिया है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, February 24, 2014

तुम्हारा आना


सफेद झूठ होगा मेरा यह कहना कि
तुम्हारे आने से पहले
दिन खाली-खाली थे और रातें सूनी;
यह कहना कि
तुम्हें जानकर हीं मैंने जाना हैं ज़िंदगी को,
कि तुम आई
तभी धड़कनें उपजीं, साँसें कौंधीं, रगों में रक्त बह निकला...

मेरे शब्द गिर पड़ेंगे
कौड़ियों की तरह,
अगर मैं बोल दूँ कि
तुमने हीं हाड़-माँस में फूँके हैं प्राण...

यादों पर पड़े पदचिन्ह गवाही देंगे
कि मैं तुम्हें रख रहा हूँ धोखे में..

तुम कभी न कभी गुजरे नक्षत्रों को उतारोगी हथेली पर
और किस्मत की लकीरों पर दौड़ पड़ोगी उलटे पाँव..

टकराओगी सच से
और पिघल जाएगा मेरे सच का मोल..

इसलिए खुद कहता हूँ-
तुम्हारे आने से पहले भी
ज़िंदा था मैं,
जान चुका था ज़िंदगी के उतार-चढाव..

ज़िंदा था मैं,
लेकिन सुलगती साँसों की आंच पर चढे काठ की हांडी के मानिंद..
मेरे दिन लबरेज थे चंद तारों से
और रातों में जलन थी दावानल की;
दर-ओ-दीवार नाखूनों की छीलन से नुचे-खुचे थे
और सीने में बसते थे......... बस ज्वार-भाटे

तुमने प्राण नहीं फूँके,
बल्कि पेट के बल सरकते मेरे अस्तित्व में
जड़ दी है रीढ...
प्रेम की रीढ..

शून्य से ऊपर खींच ले जाना अगर प्रेम है
तो अनंत तक धंस चुके मेरे ख्वाबों को तुम्हारा अवलंब
क्या कहा जाएगा-
युग निर्धारित करे!!!

- Vishwa Deepak Lyricist