Tuesday, January 22, 2013

ज़ेरोक्स करके रख लूँ मैं


आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स करके रख लूँ मैं..

आईये
कुछ बोलिये,
आँखों को मेरी खोलिये,
मुझको खिलौना कीजिए,
हाथों से टोना कीजिए..

पलकों पे साँसें मारिये,
कानों में झांसे मारिये,
मैं टोकूँ तो हँस दीजिए,
जो बोलूँ कि बस कीजिए
तो रूठ के चल दीजिए..

फिर लौट के खुद आईये
और आते हीं भिड़ जाईये...

आईये
आ जाईये,
आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स कर के रख लूँ मैं..

ख्वाब में आती है जो
आपकी हमनाम एक
आप-सी दिखती तो है
पर हैं हुनर उन्नीस हीं..

बीस तो बस आप हैं..

ख्वाब के उस ’आप’ को
आप करने के लिए
आईये
आ जाईये,
आपकी बदमाशियाँ ज़ेरोक्स कर के रख लूँ मैं..

देखिए,
साँस की खुराक का सवाल है!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, January 21, 2013

सोने दो इसे


ज़रा-सी आँख लगी है,
सोने दो
इसे..

तुम अपनी हवाओं की बांसुरी
फूंको
पहाड़ों के कानों में,
रोशनी के छींटे उड़ेल आओ
फूलों पे
गुलमोहर के,
जाकर निहारो एक-टक
रात भर बतियाते
मस्जिद-मंदिर के गुंबदों को,
पाँव चूमो
नीम-नींद में डूबी
गिलहरियों के -
तुम्हारी रचनाएँ तो वे भी है,
जाओ
उन पर नाज़ करो
इस वक़्त..

माँग लो
गौरैये से उसके पंख
और पहली उड़ान की तरह
निकल जाओ क्षितिज नापने..

निश्चिंत रहो-
तुम्हारी यह कविता
कर रही है मेरी डायरी में आराम..

मुझे प्यार पढने दो..

तुम आना कल सुबह
सूरज के साथ
और गुनगुना लेना इसे
गुनगुनी धूप की गिलौरी निगलकर..

तब तक
सोने दो इसे,
ज़रा-सी आँख लगी है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

मेरी हूर


सोयी हूरें
नहीं मिलती किताबों में भी..

सबको देखनी होती हैं
उनकी
घूरती आँखें,
घेरती बांहें
और थिरकते पाँव...

वे सारी हूरें
अभिशप्त हैं जागने के लिए
क्योंकि सोयी हैं
उनके मुरीदों की कल्पनाएँ..

मेरी हूर
सोयी है
सामने
और मैं रंगता जा रहा हूँ सफ़हे,
हज़ारों हज़ार सफ़हे -
उसके चेहरे पे,
अपने सीने में...

कविताएँ
उठकर बैठ रही हैं हर पल,
हुस्न जाग रहा है,
हूर सोयी है..

कवि ज़िंदा है!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, January 18, 2013

ज़िंदगी आपकी ज़मीन पर है चल पड़ी


ज़िंदगी जुए से है निकल पड़ी,
ज़िंदगी धुएँ से है निकल पड़ी..

ज़िंदगी अब होश में है,
आपकी ज़मीन पर चल रही है,
जोश में है..

फूल के लिबास में,
ओस के कयास में,
खुशबूओं से खेलती
जूही, अमलतास में,
ज़िंदगी
धूप की छुअन से है मचल पड़ी...

ज़िंदगी लिजलिजी धुंध से निकल पड़ी..

ज़िंदगी अशर्फ़ी हुई कारण आपके,
रूह में मिलाकर देह को खिला दूँ,
अनमोल बर्फ़ी हुई कारण आपके...

आपके..

ज़िंदगी आपकी आँख में है ढल पड़ी..

हारे हुए जुए से जीतकर निकल पड़ी,
काले हुए धुएँ से बीतकर निकल पड़ी,
ज़िंदगी आपकी ज़मीन पर जो चल पड़ी...

ज़िंदगी..

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, January 13, 2013

तुम्हारी मुहर लगी साँसें


वो तुम्हारे लबों से "हाय, मर जावां" का फूटना
और मेरा मर जाना.. उसी दम...

याद रहेगा मुझे आवाज़ों का दौर गुजर जाने के बाद भी..

तुम बस इन छल्लेदार लबों से चूमती रहना हवाएँ,
मैं तुम्हारी मुहर लगी उन साँसों की बदौलत जीता-मरता रहूँगा...

बस तुम इशारों के उस दौर में मत भूलना
"हाय" कहना आँखों से,
मैं पढ लूँगा तुम्हारी अदाएँ टटोलकर "ब्रेल लिपि" में
और
और
मर जाऊँगा फिर से.......उसी दम

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, January 08, 2013

ओक भर की आँख में


नाटे कद की ज़िंदगी
फैलती है जा रही..

आसमां से बोल दो
नए रिश्ते ना बाँधा करे,
हाथ की ऊँचाई अब
है देह को छका रही..

नाटे कद की ज़िंदगी..

शाम की ढलान पे
हैं सुर्ख लब सिमट रहे,
ओक भर की आँख में
है रात छलछला रही..

नाटे कद की ज़िंदगी..

वो वहीं से बिन कहे
लौट गए आज भी,
हमने "प्यार" सुन लिया,
अब साँस बड़बड़ा रही..

नाटे कद की ज़िंदगी,
फैलती है जा रही...

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, January 07, 2013

गिरा है औंधे मुँह रिश्ता



तेरी आँखें कारखाना हैं क्या,
अहसास कारीगर हैं जिनमें..

फिर रोज़-रोज़ का रोना क्यों?

_________________


कभी शिकवों पे हँसते थे,
अभी हँस दें तो शिकवे हों..

गिरा है औंधे मुँह रिश्ता..

________________


कल पर निकल आएँगे कानों के भी,
आज सुन लो मुझे गर सुनना हो..

मैं बोल के उड़ जाऊँगा यूँ भी...

________________


उसे ग़म है कि उसकी खुशियों का कद छोटा है,
मुझे खुशी है कि ग़म की पकड़ कमज़ोर हुई..

मैं ज़िंदा हूँ और वो मरता है खुशी रखकर भी..

_________________


कुछ झांकता है अंदर, कुछ भागता है बाहर,
मैं खुद से अजनबी-सा यह खेल देखता हूँ..

सीने में जंग छिड़ी है ईमां और बुज़्दिली में...

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, January 04, 2013

दिशाहीन


तुम्हारी विचारधारा
सर कटे मुर्गे की तरह है,
जो चार लम्हों के लिए चलता तो है
लेकिन
न दिशा जानता है, न हीं दशा..

तुम
जाल में फँसे उस तोते की तरह मुखर हो
जो
पिंजड़े में सिमटने के बाद भी
रटता रहता है एक हीं मंत्र-
"बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा ,
दाना डालेगा , हमें बुलाएगा,
हम नहीं जायेंगे, हम नहीं फँसेगे !"

तुम्हें चुभती है
लिखाई किसी पन्ने की
तो जला डालते हो
पूरी की पूरी किताब
और ताले चढवा देते हो पुस्तकालयों पे
ताकि "म्युटेट" न हो जाए फिर कोई "सेल्फ",
लेकिन नहीं झांकते
अपने घर के तहखानों में
जहाँ सदियों से शोर कर रहे हैं हज़ार छापाखाने....

मैं
तुम्हारे शब्दों को
जोड़ता हूँ जब
चाल-चलन से तुम्हारी,
तो खड़ा हो जाता है एक पिरामिड,
जिसमें लेप डालकर लिटाई मिलती है
सच्चाई, जिम्मेदारी और इंसानियत
"मिश्र की ममी" के लिबास में...

मैं
घूरता हूँ तुम्हारी जिह्वा पर लदे पिरामिड को
और सुनता हूँ उसकी बदौलत
तुम्हें पढते मर्सिया...

शायद यह सच न हो
या मेरी कोरी कल्पना हो मात्र,
लेकिन अगले हीं पल,
अगले हर पल
तुम्हारे छापाखाने दागते हैं सवाल
तुम्हारे उस्तरों पर
और
पन्नों का रंग लौट आता है तुम्हारी रगों की ओर...

फिर नहीं कटता कोई मुर्गा
और खोल में समा जाती है
तुम्हारी विचारधारा
नमक लगे घोंघे की तरह...

वैसे
नमक ज्यादा हो तो
मर भी जाते हैं घोंघे....

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, January 03, 2013

दादी जी


पोरों में बर्फ जम जाए
तो टूट जाता है पत्थर भी,
कट-कटा उठते हैं दाँत लोहे के
जब सर पर काबिज़ होता है कुहासा...

फिर वह तो एक सौ-साला इमारत थी..

हाय!
छत उठ गई पोते-पोतियों के सर से,
भगवान घर की आत्मा को शांति दे...

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, January 01, 2013

बदलाव


कैलेण्डर बदल लिया है,
अब दिन-रात भी बदल लें..

पिरोयें रोशनी सुबह में
और सांझ के डूबते सूरज से
रात की अंधी-खुरदरी पगडंडियों के लिए
माँग लें धूप की टॉर्च,
परछाईं की चप्पलें...

सड़ती और सड़ी-गली सोच को
न सिर्फ हटाएँ शब्दों से,
बल्कि माथे में थमे हुए तालाब को भी
कर दें हरी काई और शैवालों से मुक्त,
उगाएँ सिंघाड़ें या फिर कमल
ताकि धमनियाँ और शिरे
ज़िंदा रहें, जागरूक रहें
और धड़कता-महकता रहे शरीर
आपादमस्तक...

सजाएँ जीने के ख्याल
और पलट दें
"मैरियाना ट्रेंच" तक धँसे हौसलों को
ताकि हर आह में खड़ा हो
एक नया एवरेस्ट;
तान दें अपनी आँखों के सामने
दो हथेलियाँ
और चढकर उनपे
बढा लें अपना कद
पौने दो या दो गुणा...

बदल दें रात और दिन,
क्षण, पक्ष, महीने
लेकिन सबसे पहले
बदलें खुद को -
अंदर की पलकें खोल
खंगालें हृदय ,
हटाकर हाड़-माँस
गूँथ लें फूल, पत्तियाँ,
सागर, आसमान, पड़ाड़
और आस-पास के
करोड़ों चेहरें, लाखों बुत, एक इंसानियत...

कैलेण्डर बदल लिया है,
अब बदल लें
कागज़, रोशनाई, आँसू, मुस्कान,
नज़र, नज़रिया
और सबसे बढकर
परिभाषा........बदलाव की...

- Vishwa Deepak Lyricist