Sunday, December 02, 2012

एरोप्लेन, ज़िंदगी और कविता



एरोप्लेन:

नाक नुकीली लिए फिर रहा
एरोप्लेन क्या सूंघ रहा है?

फाड़ के बादल रस पीएगा?

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बड़ी काई है आसमान में,
खुरपी लेकर चलो छील दें..

धार तेज़ है एरोप्लेन की..

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ज़िंदगी:

नींद तो दकियानूसी है,
खैर कि बागी है करवट..

प्यार जगाए रस्म तोड़ के...

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बचकानी है मेरी हँसी,
मेरा चुप रहना है सयानों-सा..

मेरा रोना... ज्ञान की चाभी है...

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खुश रहना बुरी लत है,
फिर कुछ भी बुरा नहीं दिखता....

खुश रहो कि "तुम" भी अच्छे हो..

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ज़िंदगी कंपकंपी से ज्यादा है,
मौत ओढूँ भी तो मिलेगा चैन नहीं..

खुदा! मौसम बदल या दे कंबल नया..

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कविता:

चार दिन क़लम न उठाऊँ तो उग आते हैं खर-पतवार,
बड़ी जल्दी रहती है मेरे शब्दों को ऊसर होने की..

कतरता हूँ, छांटता हू, फिर टांकता हूँ कागज़ पर..

- Vishwa Deepak Lyricist

1 comment:

Kuhoo said...

खुश रहना बुरी लत है,
फिर कुछ भी बुरा नहीं दिखता....

खुश रहो कि "तुम" भी अच्छे हो..


waah!