Monday, September 24, 2012

क्या कहूँ इस कुफ़्र को?


हाँ ये ज़ाहिर है कि तू मेरा नहीं, उसका तो है,
उस खुदा का जिसने मेरा दिल है तेरा कर दिया...

क्या कहूँ इस कुफ़्र को- थोड़ी अदा, थोड़ी जफ़ा?

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तुम जीते-जी जी न पाए,
मैं मरता था, सो मर न पाया....

असर अलग पर हश्र एक-से..

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वह वहीं होता है जहाँ मेरी भनक बसती है,
वह वहीं होता है जहाँ मेरी तलब उठती है..

तलबगार भी वही है, तलब भी तो है वही...

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चलो दूरियों को अपनाएँ,
चलो खामखा झगड़ा कर लें..

यही दवा है ग़म-ए-इश्क़ की..

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मुद्दत हुई, मैंने तुझे देखा न उस तरह,
हरेक तरह देखा है पर, मुद्दत से तुझे हीं..

मुद्दत हुई हर इक तरह में "वह" तरह रखे...

- Vishwa Deepak Lyricist

2 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...


तुम जीते-जी जी न पाए,
मैं मरता था, सो मर न पाया....

असर अलग पर हश्र एक-से..

बहुत खूब ..... सभी त्रिवेणियाँ बहुत अच्छी

mridula pradhan said...

bahot achcha likha hai......