Tuesday, September 25, 2012

अहसासों के सावन में


बहुत हद तक जानता हूँ मैं तुम्हें,
तुम वही हो ना जो जानता है सब कुछ हीं...

ना ना, खुदा नहीं..खुशफहम हो..गप्पी हो..

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यक-ब-यक मैं बोल दूँ तुझको भी अपने-सा जो गर,
यक-ब-यक फिर तेरा भी अपना-सा मुँह हो जाएगा...

अपना-सा मुँह हो जाएगा तो खुद हीं मुँह की खाएगा...

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लिखने की ख्वाहिश छोड़ो भी,
लिखके ख्वाहिश बढ जाती है..

बढके ख्वाहिश मर जाती है..

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तुम्हें चाहिए हिन्दी! क्यों?
तुम्हें सा’ब नहीं बनना क्या?

'प्लीज़' कहो तो कृपा मिलेगी....

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उम्र झांक रही है तेरे चेहरे से,
खोल रही है जंग लगी खिड़कियाँ सभी..

नमी, नमक के गुच्छे हैं झुर्रियों के पीछे..
(अहसासों के सावन में ऐसे बंद न रहा करो)

- Vishwa Deepak Lyricist

1 comment:

Kuhoo said...

please kaho! waah :)