Thursday, August 09, 2012

अच्छा-खराब


मैं कैसे लिखूँगा कुछ अच्छा-खराब,
मुझे इस अदब की समझ हीं नहीं है..
मुझे ज़िद्द पड़ी है समझ लूँ उसे मैं,
उसे इस तलब की समझ हीं नहीं है..

मैं बे-ज़ौक़ हूँ गर तो ये क्या है कम कि
मुझे शौक है कुछ नया कहता जाऊँ,
वो बे-कैफ़ कहके हीं सुन लें तो वल्लाह!
मैं तारीफ़ मानूँ, बयां करता जाऊँ..

मेरे वास्ते तो ये रांझे की बातें
मेरे रूबरू हीं बनी हैं, चली हैं..
ना मालूम उसे क्यों लगे कुछ अजब-सा,
कि हीरें जहां की सभी बावली हैं...

मैं चाहूँ कि हम दोनों चाहें यही पर,
उसे इस कसक की समझ हीं नहीं है..
मुझे ज़िद्द पड़ी है समझ लूँ उसे मैं,
उसे इस तलब की समझ हीं नहीं है...

- Vishwa Deepak Lyricist

5 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

वाह...
बहुत सुन्दर.....
नमन आपकी लेखनी को...

अनु

Kuhoo said...

badhiya hai VD bhai...
aur ye waali mujhe samajh aayi :D

विश्व दीपक said...

बहुत-बहुत शुक्रिया आप दोनों का :)

डा. गायत्री गुप्ता 'गुंजन' said...

बहुत सुन्दर भाव...

विश्व दीपक said...

धन्यवाद गायत्री जी...