Sunday, June 17, 2012

एक सवाल

गुस्ताख निगाहों से तकता है वह तुम्हें
और तुम
अपनी नाकामयाबी का सारा ठीकरा
फोड़ देते हो उसके सर..

उसकी कालिंदी में डूबते-उबरते हो हर लम्हा
लेकिन
कतराते हो उसके किनारों कि छुअन तक से,
भूल जाते हो कि
उसी कालिंदी-कूल-कदंब की डालियों पे तुमने
मर्म जाना था कभी
कदम फूंक-फूंक रखने का..

वह उम्र भर के तमाम झंझावातों को
जज़्ब करता रहा है अब तलक,
ऐसे में कभी जो
फाड़ कर दिल की ज़मीं
निकल आई है झुंझलाहट
तो वह
मनमानी नहीं,
मजबूरी है एक-
खामियाज़ा है महज
किसी शिशुपाल की सौवीं भूल का..

वह जो बलराम-सा हल लिए
जोतता रहता है तुम्हारे खेत,
खेत तुम्हारी ज़िंदगी का,
खेत तुम्हारे मुस्तकबिल का;
उसकी ज़िंदगी की शाम में
तुम उसे आध दिहाड़ी तक नहीं देते -
वह कोई बंधुआ मजदुर तो नहीं,
पिता है तुम्हारा...

पिता है मेरा,
पिता है मेरा!!! 



- Vishwa Deepak Lyricist

7 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

झकझोर देने वाली रचना ... बहुत सुंदर

विश्व दीपक said...

जी शुक्रिया.... संगीता जी...

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ... मन में हलचल सी मचा जाती है रचना ... झंझोड जाती है अंदर तक ...

अनुपमा पाठक said...

उद्विग्न करती कविता!

अनामिका की सदायें ...... said...

bahut prabhaavshali rachna.

Anju (Anu) Chaudhary said...

बहुत गंभीर रचना

प्रतिभा सक्सेना said...

अंतर में जब उफान आता है तो इसी प्रकार व्यक्त होता है !