Saturday, June 30, 2012

रात की जेब


मैं रात की जेब में चाँद छोड़ आया था...

बादल के झीने कपड़ों से झांकते चाँद को
धड़ दबोचा था बेहया चांदनी ने

सुबकते चाँद की आँखों में
चुभो डाले उसने दो मखमली लब..

अंधी होते-होते रह गई थी रात...

उस रात का चाँद रोता है अब भी..

तुम ओस चुनते हो,
मैं आँसू पोछता हूँ!!!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, June 29, 2012

बे-बहर की ये ग़ज़ल है


चार पल के चोचले हैं,
फिर वही हम दिलजले हैं...

बेनियाज़ी आज होगी,
बेमुरव्वत हौसले हैं...

तुम कहाँ के बादशाह हो,
हम कहाँ के बावले हैं...

दिल जियेगा किस लिए अब,
साँस में जब आबले हैं...

बे-बहर की ये ग़ज़ल है,
शेर सारे मनचले हैं...

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, June 28, 2012

उड़ेगी खाक तो सूरज डरेगा


रहेगा रास्तों में हीं उलझकर,
हमेशा जो सहारों पे जिया है...

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रहेंगे रास्तों में हीं उलझकर,
कहाँ मंज़िल पे ऐसी वादियां हैं...

उड़ेगी खाक तो सूरज डरेगा,
बड़ी गफ़लत में तेरी आंधियां हैं...

बड़े जो हो चले हैं बाजुओं सें,
बिना चप्पु की उनकी कश्तियां हैं...

तरफदारी करेंगी क्या हमारी,
कलाकारों की झूठी हस्तियां हैं...

हटा दो ज़िंदगी से ये लड़कपन,
कि अब शाइस्तगी की बाज़ियां हैं...

शाइस्तगी = culture, सभ्यता

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, June 27, 2012

मुझे इस बात पे रोना पड़ा है


मुझे इस बात पे रोना पड़ा है
कि यूँ जज़्बात को ढोना पड़ा है..

जिसे बुनियाद का पत्थर कहा था,
पकड़ के आज वो कोना, पड़ा है..

जो हर एक ख़्वाब में शामिल रहा था,
उसे हर याद में खोना पड़ा है..

दिल-ए-महबूब से कू-ए-हवस तक,
मुझे बदनाम हीं होना पड़ा है..

(ख़ुदा के दैर से काफ़िर-गली तक,
मुझे बदनाम हीं होना पड़ा है..)

जवां उस चाँद के थे सब, मगर अब
उसे भी रात में सोना पड़ा है..
(यहीं फुटपाथ पे सोना पड़ा है..)

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, June 26, 2012

मौत तकरीबन


साँस में
उठते हुए धुएँ से कालिख काट के,
कैक्टस की शाख से काँटों का राशन छांट के,
रेत की बेचैनी को बहती नदी से बाँट के,
तालु की बिवाई और जिह्वा की दूरी पाट के
जी उठूँगा मैं जभी
जान लेना बस तभी
दर पे मेरे आई है...... मौत तकरीबन!!

आँख के
खलिहान की फसलों से पानी लूट के,
होश की अमराई पे मंजर चढा के झूठ के,
रीढ की चट्टान से पीपल के जैसे फूट के ,
रात की अलमारियों में नींद भर के, छूट के,
सो चलूँगा मैं जभी
जान लेना बस तभी
सर पे मेरे आई है..... मौत तकरीबन!!

- Vishwa Deepak Lyricist

Monday, June 25, 2012

अबके मानसून में


मैं जैसे ठहर-सा गया हूँ..

समुंदर में गोते लगाते हुए भी
यूँ लगता है मानो
पानी की सतह पे जम-से गए हैं मेरे पाँव..

मैं बस एक बूँद को तकता रहता हूँ..

या तो उस बूँद से निजात मिले
या
उड़ चले वह बूँद भी मेरे साथ-साथ..

अबके मानसून में मैं छूना चाहता हूँ आसमान को..

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, June 24, 2012

तराजू


रात की तराजू ले
घोड़े बेचकर
नींदें खरीदने का रिवाज़
गुजर गया है शायद..

आजकल
नहीं समाते
एक हीं पलड़े पर
नींद और ख्वाब..

कमबख्त
छटांक भर का ख्वाब
मन भर के नींद पर
कितना भारी है!

सोचता हूँ
ख्वाब बेचकर नींदें खरीद लूँ
या बेच दूँ नींदों को
ख्वाबों की खातिर?

बेशक़
मुहावरे के सारे घोड़े
बेमोल, कम-वज़न हो गए हैं,
जब से सपनों ने सीख लिया है उड़ना

- Vishwa Deepak Lyricist

Saturday, June 23, 2012

असमंजस


लटें
कान के पीछे,
कुछ-कुछ आँखों पर,
एक-दो नाक के ऊपर
हसुली जैसे
एक-चौथाई चाँद-सी,
दो-चार चूमती गालों को
और
बाकी जंगल के अनछुए रस्तों की तरह
गरदन के इर्द-गिर्द
तो कुछ गरदन के परे
फ़लक से ज़मीं की ओर....

इन्हीं लटों ने
बाँध रखा है मुझे.

कभी उतार देती हैं आँखों में
तो कभी कराती हैं सैर जिस्म की..

इनसे छूटूँ तो सोचूँ -
जहां में और क्या है,
इनसे बंधकर
तो जहां है... बस तुझसे तुझ तक....

- Vishwa Deepak Lyricist

Friday, June 22, 2012

मैं


मैं नहीं जानता इस "मैं" को!

मैं एक "मैं" को जानता था पहले,
जानता था तब तक
जब तक तुम्हें नहीं सौंपी थी मैंने
उस "मैं" की जिम्मेदारी..

अब न तुम हो,
न वो "मैं" है
और जो आजकल
मुझमें "मैं" बनकर रहता है
वह या तो सौतेला है मेरा
या रहता है सातवें आसमान पर..

या फिर दोनों है...
क्या मालूम!

सुनो,
मेरे उस "मैं" से मन भर गया हो
तो भेज दो बैरंग
या
ले आओ साथ में..

मैं बेचैन हूँ -
अपना यह नया "मैं"
सौंपने के लिए तुम्हें,
तुम्हारे हीं लायक है
खूब जमेगा तुम पर...

- Vishwa Deepak Lyricist

Thursday, June 21, 2012

कनगोजर


मुझमें पनपता है गुस्सा हर दिन

और रात तक यह चाह उग आती है
कि इस गुस्से की पूँछ पकड़
खींच लूँ अपनी पेशानी से
और फेंक आऊँ किसी "नामुराद" के कानों में..

यह कनगोजर वहीं का बाशिंदा है,
रह लेगा वहाँ मज़े से..

लेकिन फिर सोचता हूँ कि
यह चाह वापस न ले आए
इस परजीवी को फिर मुझ तक..

यह गुस्सा रहे तो भी आफत,
जाए तो भी आफत...

- Vishwa Deepak Lyricist

दो खेमें


चलो
यहीं
इर्द-गिर्द
दो खेमें बाँट लें हम...

तुम उस तरफ़,
मैं इस तरफ़,
तुम माटी-माटी राग दो,
मैं पानी-पानी झाग दूँ,
तुम ढीठ हो लो ऐश में,
मैं रीढ मोड़ूँ तैश में,
ना भाऊँ मैं तुम्हें आँख एक,
ना मानूँ मैं भी धाक एक
और आएँ जब हम सामने
तो यूँ लगे कि ना कहीं
अब एक-दूसरे के हीं
दो कान काट लें हम...

दो खेमे बाँट लें हम...

जब यूँ कदम दो ओर हों,
ना दुश्मनी का तोड़ हो,
जब सारा जग या तो इधर
या उस तरफ़ उस छोर हो,
जब सब कहें कि दो बुरे
में से कोई एक हम चुनें,
तो इर्द-गिर्द झांक के,
गुड़-चीनी गिन्नी फांक के,
जो पुल बना हो बीच में,
उसको नखों से खींच के
वहीं खाई में हम डाल दें,
और इस तरह इक चाल से
उन दूरियों को तब हीं तब
खुश हो के पाट लें हम...

दो खेमे बाँट लें हम...

- Vishwa Deepak Lyricist

Wednesday, June 20, 2012

फिसलन


अब कि
तुम्हारे फिसलनदार कोटरों में
वह माद्दा नहीं कि
मेरी परछाई तक तो थाम सकें...

ये तुम्हारी दो "गज़ाल-सी आँखें"
नदी भर-भर रोती रहें

या डूब मरें उन्हीं में,
मैं किनारे के पत्थर-सा
बैठा रहूँगा वहीं,
भले तुम भिंगोती रहो मुझे,
लेकिन मैं न राह दूँगा... न हीं हाथ...
हाँ, इतनी मेहरबानी करूँगा
कि
जब तुम सर या पैर दे मारो मुझपे,
तो मैं
सहेज के रख लूँ खून के कुछ कतरे
जो यकीनन हैं मेरे हीं...

याद है? -
मेरी उस दुनिया
की चूने वाली दो दीवारों पर
कत्थई रंग से तुमने लिखा था
मेरा नाम कभी
और मैं हर बार अपने नाम के रस्ते
तुम्हारे नाम, तुम्हारी पहचान में उतर आता था
और इस तरह मुकम्मल हो जाता था मैं,
मुझे लगता था
कि दो पहचानों ने एक पहचान को जना है...

तुमने न जाने कब
उन दीवारों में खिड़कियाँ ठूंस डालीं,
न जाने कितनी बार
खुल चुकीं है वे खिड़कियाँ अब तक..
आह!
कत्थई को कालिख कर दिया तुमने!!!

अब
तुम्हारी इन फिसलनदार कोटरों में
वही ठहर सकता है
जो नाखून टिका दे इनकी ज़मीं पे
या छील आए इन्हें
जैसे कोई हटाता है
काई अपने आंगन से..

मैं न कर पाऊँगा ऐसा
क्योंकि इन कोटरों में
कभी रहा था मैं
अपना हक़ जानकर...

- Vishwa Deepak Lyricist

असहिष्णु


इंसान इतना असहिष्णु हो गया है..... आखिर क्यों?

क्यों "ऊष्मा" को उचक कर सीने से लगाता है,
लेकिन बर्ताव में हल्की-सी ठंढक भी "सह" नहीं पाता...

बर्फ़ का एक टुकड़ा छू भर जाए कि
मियादी बुखार के मरीज-सा झल्ला उठता है
और करने लगता है उल्टियाँ
अपने "बड़े" कामों की,
दिन-रात सीने पे चिपकाए फिरता है
अपना बड़प्पन ताम्र-पत्र-सा..

आखिर क्यों?

माना तुमने ये किया है, वो किया है
लेकिन सामने वाले ने कुछ और "ये" "वो" किया है,
न तुमने "वो" किया है,
न उसने "ये",
फिर काहे की ये "साँप-सीढी",
काहे का ये "पहाड़-पानी"...
तुम अपने घर खुश,
वह अपने घर खुश,
हाँ अगर रास्ते मिले कहीं
तो खुद को हाई-वे और उसे पगडंडी
साबित करने की ये कोशिश...... आखिर क्यों?

तुमने खुले मंच से अपने भाषण पढे
और तुम्हारे शब्द
उसके कान और नाक को नागवार गुजरे
कील-से चुभने लगे उसके पाचन-तंत्र में
तो उसने एक हल्की झिड़की
उड़ेल दी अपनी आँखो से
और तुम बरस पड़े दुगने भाषण के साथ...

यहाँ गलत क्या था?
तुम्हारा भाषण,
तुम्हारा भाषण उसका सुनना,
तुम्हारा भाषण उसे सुनाना,
तुम्हारे भाषण का उसे नागवार गुजरना
या वो हल्की-सी झिड़की?

तुम सोचो..
आखिर कुछ तो गलत था कि
संगीन हो उठा माहौल... आखिर क्यों?

- Vishwa Deepak Lyricist

Tuesday, June 19, 2012

सनद रहे


सनद रहे!!! 



आसमां की अंतड़ियों में 
अम्ल डाल के बैठे हैं जो 
उनकी नाजुक जिह्वाओं पे 
अमलतास के बीज पड़ेंगे - 
ऐसे ख्वाब संजोने वाले 
उन सारे कापुरूषों पे अब 
जीर्ण-शीर्ण हीं सही मगर कुछ 
खंडहर बनने को आतुर 
मेरे भूत के पुण्य दो-महले 
उसी अम्ल की बारिश चुनकर 
सर से नख तक ठप-ठप, ढप-ढप 
बनकर कई सौ गाज़ गिरेंगे.. 


हाँ 
हाँ 
आज के आज गिरेंगे... 


सनद रहे!!! 

 - Vishwa Deepak Lyricist

Monday, June 18, 2012

अथाह शून्य


मेरे तमाम शब्द काल-कवलित हो गए हैं...

मैं अब लम्हों की लाठी लिए चल रहा हूँ बस,
कोई कागज़ की ज़मीन दे तो मैं उन लम्हों को गाड़ आऊँ
और कोल्हू के बैल की तरह बाँध आऊँ अपनी लेखनी को उस खूँटे से..

सालों तक घिसकर कम से कम एक शब्द तो बह निकलेगा -
या तो खून से या पसीने से लथपथ!!!

शब्दों के बिना मैं अपाहिज़
"अथाह शून्य" में लोटपोट कर रहा हूँ
सदियों से....

- Vishwa Deepak Lyricist

Sunday, June 17, 2012

एक सवाल

गुस्ताख निगाहों से तकता है वह तुम्हें
और तुम
अपनी नाकामयाबी का सारा ठीकरा
फोड़ देते हो उसके सर..

उसकी कालिंदी में डूबते-उबरते हो हर लम्हा
लेकिन
कतराते हो उसके किनारों कि छुअन तक से,
भूल जाते हो कि
उसी कालिंदी-कूल-कदंब की डालियों पे तुमने
मर्म जाना था कभी
कदम फूंक-फूंक रखने का..

वह उम्र भर के तमाम झंझावातों को
जज़्ब करता रहा है अब तलक,
ऐसे में कभी जो
फाड़ कर दिल की ज़मीं
निकल आई है झुंझलाहट
तो वह
मनमानी नहीं,
मजबूरी है एक-
खामियाज़ा है महज
किसी शिशुपाल की सौवीं भूल का..

वह जो बलराम-सा हल लिए
जोतता रहता है तुम्हारे खेत,
खेत तुम्हारी ज़िंदगी का,
खेत तुम्हारे मुस्तकबिल का;
उसकी ज़िंदगी की शाम में
तुम उसे आध दिहाड़ी तक नहीं देते -
वह कोई बंधुआ मजदुर तो नहीं,
पिता है तुम्हारा...

पिता है मेरा,
पिता है मेरा!!! 



- Vishwa Deepak Lyricist

Saturday, June 16, 2012

बे-लिबास

कुछ कहानियों का मुझे औचित्य हीं नहीं मालूम चलता... बड़ी बेबाकी से बारीकियों तक वे इस कदर समा जाते हैं मानो देह के ऊपरी तल्ले से नीचले तल्ले तक का रास्ता बस उन्हें हीं पता हो और ऊपर वाले ने उन्हें यह उत्तरदायित्व सौंपा हो कि बड़े या खुले मंच पर इन परतों को खोल आओ ताकि अपनी "शारीरिक संचरना" से अनभिज्ञ जनता इस तिलिस्मी जानकारी से लाभ ले सके 

हाल-फिलहाल में खुले मंच पर ऐसी दो कहानियाँ खुली पाईं मैने... खुली थीं तो पढ ली.. पढ लीं तो अब तलक सोच हीं रहा हूँ कि...

कोई बताए मुझे कि क्या हर चीज़ परदे के पार आ जानी चाहिए... क्या इसे हीं प्रगति करना कहते हैं..अगर ऐसा है तो भई मैं तो रूढिवादी या छोटी सोच का इंसान हूँ...... यकीनन!!

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दीवान-ए-खास को हैं वो दीवान-ए-आम कर गए,
बेगानों की गली में जो बिस्तर नीलाम कर गए...

कागज़ पे जिस्म खोल के लाखों की लेखनी ली,
आखर जो ढाई थे उन्हें कौड़ी के दाम कर गए...

पत्थर के पीछे आईने रखते गए, चखते गए,
किस्से खुले तो आप को झटके में राम कर गए..

जिनके लिए सदियों की हैं बेड़ी-से उनके पैरहन,
रस लेके उनके देह से उनको हीं जाम कर गए..

यूँ तो हैं आध-एक हीं लफ़्ज़ों के सिकंदर मगर,
भूसे में बन के आग वो अपना हैं काम कर गए..

माना कि है हुनर इक रखना बेबाक सब कुछ,
पर जो थे बे-लिबास वो इज़्ज़त तो थाम कर गए..

Vishwa Deepak Lyricist

*आप = अपने-आप, खुद
पैरहन = कपड़ा