Wednesday, January 26, 2011

जीत राष्ट्र की


शनै: शनै: बढते जाएँगे,
हम अंबर पर चढ जाएँगे,
यही सोच थी, सही सोच थी,
कि हम जब भी कदम धरेंगे
कण-कण पर अधिकार करेंगे,
गढ जाएँगे मूर्त्ति विजय की,
नाम स्वर्ण में मढ जाएँगे।

होना था सब कुछ ऐसे हीं...
लेकिन विगत एकसठ वर्षों में,
भूल हुई बस एक यही कि
चढने को हमने ठाना जब
दलन किया अपने लोगों का,
बना लिया सोपान उन्हीं को
जो कि पथ में साथ रहे थे,
बनकर हर पल हाथ रहे थे।

कहाँ स्वप्न थे समष्टि के,
और कहाँ व्यष्टि पर अटके,
चढते कब, जब पहले पग पर
हीं हम मूल ध्येय से भटके।

जीत "राष्ट्र" की होती क्यूँकर,
जबकि स्वार्थ में लिप्त हुए हम,
जनना था "सूरज" हमको पर,
चिर-निशा ओढ सुसुप्त हुए हम।

अब भी लुटा सर्वस्व नहीं है,
बहुत कुछ है अब भी शेष,
संभल पड़ें जो इस पल हम तो
सजे लक्ष्य, सँवरे परिवेश।

युग बदला, एक नव-युग आया,
इस युग के बस कुछ दिन गुजरे,
जोश धरें यदि, संभव है कि
भग्नावशेष से अंकुर उभरे।

अत: करें हम दृढ-संकल्प
कि "स्व" ऊपर स्वदेश रखेंगे,
जीत राष्ट्र की करने में हीं
तन-मन-धन अनिमेष रखेंगे।


-विश्व दीपक

1 comment:

ZEAL said...

अत: करें हम दृढ-संकल्प
कि "स्व" ऊपर स्वदेश रखेंगे,
जीत राष्ट्र की करने में हीं
तन-मन-धन अनिमेष रखेंगे॥

ओजमयी , सुन्दर प्रस्तुति।

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