Sunday, January 23, 2011

चार-पाँच मील के सपने


चार-पाँच मील के सपने!
नींद थक गई उन् पर चलते-चलते..
उतर आई बीच में हीं
आँखों के कच्चे रस्ते पे..
और फिसल गई आह!

ग़मों ने पिछले पहर
बड़ी मूसलाधार बारिश की थी
सो रस्ते के किनारों पर
अब भी कीच के नामो-निशान शेष थे
धपाक से गिरी अधमरी नींद
और "धुक" से बैठ गया दिल!

नींद ने आखिरी साँसें लीं!

करवट बदलकर मैंने
वही सपना जोड़ना चाहा फिर से,
लेकिन रास्ते का पता
न तो पुरानी नींद की आत्मा को था
(लेकिन आत्मा तो अमर है,
नई नींद क्या, पुरानी नींद क्या!)
और न हीं नई नींद के जिस्म को।

नई नींद पुरानी नींद की कब्र पर खड़ी थी
और पुकार रही थी अपने सपने को।
और वे सपने वहीं पड़े थे
"चार-पाँच मील तक",
लेकिन उन पर कोई चलने वाला न था।

रात भर मैं ढूँढता रहा
अपनी नींद और अपने सपनों को
और देता रहा आवाज़ दोनो को।
नींद मिलती तो सपने न होते
और सपने दिखते तो नींद की कोई ख़बर न होती।

तब से यह कहानी हर रात की है!
हर रात मैं जगता हूँ कशमकश में
और उतारता रहता हूँ सपनों को पन्नों पर।

जाने खता किसकी थी,
मेरी कि मैंने लंबे सपने बुनें,
ग़म की जो तोड़ गया आँखों को
या फिर "उस" नींद की जो थक गई रस्ते में हीं?

खता चाहे जिसकी हो,
भुगत तो मैं हीं रहा हूँ
और लोग कहते हैं कि
"सोता नहीं रात भर,
पागल हो जाएगा।"

पागल? अब कब?


-विश्व दीपक

4 comments:

दिपाली "आब" said...

Waah..kya thought hai, aur drafting b ek dum shandar hai..
par

Yahan aakar
''tab se यह कहानी हर रात की है !''

Nazm kamjor padne lagti hai, aur end tak aate aate marne lagti hai..
Last line, paagal ? Ab kab?
Se use fir oxygen mili, pr sirf do second ke liye..
kuch kaam krna baki reh gaya shayad
:)

रश्मि प्रभा... said...

amazing ... ise vatvriksh ke liye ... jaldi

विश्व दीपक said...

दिपाली जी,
जहाँ पर आपको ब्रेक दिखा, वहीं पर मैंने भी ब्रेक लिया था लिखने में.. कुछ देर के लिए। शायद उसी का असर हो। कमजोर हो सकती है, लेकिन दिल से लिखी हुई है, इसलिए किसी भी पंक्ति पर मैंने दुबारा समय नहीं दिया है। अब इसे पुख्ता और मजबूत (अगर नहीं है तो :) ) कैसे किया जाए, इसका मुझे तो आईडिया नहीं आ रहा। आप समझ रही हों तो बताएँ।

रश्मि जी,
जी ज़रूर। भेजता हूँ।

धन्यवाद,
विश्व दीपक

Nimesh said...

bahut creative words hain. padh ke maza aa gaya.