Sunday, January 23, 2011

बहुत लड़ता था तुझसे


बहुत लड़ता था तुझसे!

पतीले भर दूध का बड़ा टुकड़ा
किसे मिले,
सेवैय्यों की बड़ी लड़ी
किसके हिस्से जाए,
राशन के साथ मुफ़्त में नसीब हुए
कुछ नेमचुस (लेमनचुस)
बँटे तो कैसे,
"घुरा" पर आग तापते वक़्त
पापा के लिए "पीढा"
कौन लाने जाए?

तेरी जिद्द से हारकर
मैं हीं ले आता था,
लेकिन लड़ता ज़रूर था
और हाँ, डाँटता भी था,
"बड़ा जो हूँ,
इतना हक़ तो बनता है,"
बस यही सोचता था हर बार
और डपट देता था तुझे।

तू गुस्साती थी,
"सोणे" चाँद जैसे मुखरे को
फुलाकर "सूरज" बन जाती थी.. लाल-लाल.. सुनहरा
और सिमट जाती थी खुद में हीं..
मैं "डरपोक"
कभी भी मना न पाया तुझे,
हर बार माँ से कहकर
तुझे तेरे "कवच" से निकलवाकर बाहर मंगाता था
और फिर से
लड़ बैठता था।

सब कहते थे-
"एक पीठ पर के बच्चे हैं"
तो नोंक-झोंक होगी हीं,
लेकिन हमारे लिए यह
कुछ और हीं था,
मेरा खाना नहीं पचता था
तेरी हर बात को काटे बिना
शायद!
और तू?
तू अपने मन की मुराद
कह नहीं पाती थी खुल के
और मैं या शायद सभी
तुझे घमंडी मान बैठे थे,
इसलिए तू गुस्सा होती थी और बाकी सब
नाराज!

यही चलता रहा
और फिर एक दिन
तेरी डोली सज गई।
तू बन-सँवरके बैठी थी
गोटीदार लहँगे में,
शर्माई-सी, सकुचाई-सी
और चुटकी भर परेशान..
मैं कमरे में जाता,
तुझे मुझ पर तकता पाता
और "अवाक" रह जाता।
क्या बोलूँ मैं?
कैसे बोलूँ मैं?
कैसे लड़ूँ मैं?
यही सोचता हुआ
निकल आता मैं बाहर।
सच्ची
मैं पूरे दो दिन तक
चुप हीं रहा... सच्ची!

भैया!

जब मैं पूरी ताकत से
तुझे ठेल रहा था
किसी और की हथेली में
और खुलने हीं वाला था अपना रिश्ता
नोंक-झोंक वाला..
तूने पूरे ज़ोर से यही पुकार लगाई थी
"नहीं भैया"
और मैं "काठ"-सा हो गया था पल भर को..
सबकी आँखें नम थीं,
लेकिन मैं "निर्मोही" तब भी
एक बूँद न ठेल पाया आँखों से..
मैं "कसाई"!

तेरे जाने के बाद
मैं ढूँढता रहा "उसे"
जिसकी हर बात पर मैं
कसता था फिकरे,
लेकिन आह!
मुझे कोई न मिला
और तब सच्ची
मेरी आँखों से "गंगा" निकल आई।
तब जाना मैंने
तू क्या थी,
पूरे बाईस-तेईस साल
मैंने क्या खोया था
और अब क्या खो दिया है
किसी "खास" के हाथों!

तब से आज तक
प्रायश्चित हीं करता रहा हूँ,
उस "ऊपर वाले" से हर पल
माँगता था.. वो बीते हुए दिन!
और आज
"नए पैकेट" में मुझे पुराने लम्हे
अता कर दिए उसने!

आज एक पीढी ऊपर हो गया मैं!

सुबह-सुबह ढलते चाँद
और जगते सूरज ने मुझे ख़बर दी
कि
मेरी "मुँह फुलाने वाली" भगिनी (संस्कृत की)
ने मुझे भगिनी (भांजी) का तोहफ़ा दिया है..

इस बार गलती नहीं करूँगा..
इस बार जी भरकर लड़ूँगा अपनी भगिनी से
लेकिन हर बार हारूँगा
जान-बूझकर
सच्ची!

बहुत लड़ा था तुझसे,
अब इसकी बारी है.. हाहा!


-विश्व दीपक

5 comments:

Kuhoo Gupta said...

main kya likhoon VD bhai ... aapne rulaa diya mujhe ... its a painting ... painting of emotions ... kuch bhi kahoon ... ye poem usse bhi jyada deserve karti hai ... God bless you & your family and the latest entry in the family :)
Love to your bhanji !
Kuhoo

Vineet Bhardwaj said...

Aankhein nam kar di aapne .......bhavnaon ka isse achha chitran sambhav nahin.....bahut badhai is hridaysparshi rachna ke liye.....aur saath hi bhagini ke liye bhi.

विश्व दीपक said...

कुहू जी एवं विनीत भाई,
बधाई संदेश देने के लिए आप दोनों का तह-ए-दिल से आभार!

विनीत भाई, किधर हैं आजकल आप? न कोई चिट्ठी, न कोई पत्री :) हालचाल बताते रहिए..

Unknown said...

kuch achi rachna padne ka man kiya aur aapke blog par aa pahuncha. is bahut hi khubsurat aur hridaysparshi rachna ke danywad !!!

SKT said...

बहुत ही उम्दा रचना लिखी है , दीपक जी ! हार्दिक बधाई स्वीकारें.