Sunday, March 28, 2010

पागलपन हीं मेरा फ़न है...


पागलपन हीं मेरा फ़न है!

"खुसरो" का मैं बूझ-पहेली,
अंतर यह कि उत्तर जिसका,
एक नहीं..
बदले हरदम है...

बानगी देखो
कि मिट्टी-सा
सौंधा कभी
कभी मटमैला,
कभी फूल तो कभी
हज़ारों काँटों से
रंजित यह वन है...
यह जो मेरा अगम-अगोचर-
अलसाया-सा अद्भुत मन है.......

मुझे संवारे, मुझे निखारे
मुझको मेरा सच बतला दे
ऐसा कहाँ कोई दर्पण है..

और क्या कहूँ,
यही बहुत है..
मुझे जानने वाले कहते
कभी राम
तो कभी विभीषण
और कभी मुझमें रावण है..
पागलपन हीं मेरा फ़न है....


-विश्व दीपक

4 comments:

Shanno Aggarwal said...

बहुत अच्छा प्रयास...कविता बढ़िया है....मन के पता नहीं कितने बदलते रूपों को दर्शाने वाली यह कविता लोगों की घिसी-पिटी कविताओं की भीड़ में अभिन्न सी.. अपनी अलग ही पहचान बनाती है..विश्व जी..बधाई...

"राज" said...

this is wat called matured writing....very nicely composed...

बानगी देखो
कि मिट्टी-सा
सौंधा कभी
कभी मटमैला,
कभी फूल तो कभी
हज़ारों काँटों से
रंजित यह वन है...
यह जो मेरा अगम-अगोचर-
अलसाया-सा अद्भुत मन है.......


...awesome..........keep moving bro!!

डॉ .अनुराग said...

कभी राम
तो कभी विभीषण
और कभी मुझमें रावण है..
पागलपन हीं मेरा फ़न है....

i like u r style...some what confession..rather jameer ki aavaj....

विश्व दीपक said...

suman ji, thanks a lot!!

shanno ji, rachna ko saraahne aur apnaane ke liye aapka tah-e-dil se shukriya.....

raaj... dost.... ab mature ho rahaa hoo to mature writing hogi na :)

doctor saaheb.... mera style aapko bhaa gayaa. mujhe aur kya chahiye... isi tarah likhne ki koshish karta rahoonga... dhanyawaad.

-Vishwa Deepak