Wednesday, March 31, 2010

तुम हो क्या..


मुखड़ा

साँसों की दूरियाँ
मुझको तो भाए ना।
आँखों की चोरियाँ
अब सही जाए ना।
साँसों की दूरियाँ
मुझको तो भाए ना।
आँखों की चोरियाँ
अब सही जाए ना।

बेताबियाँ
क्यूँकर यहाँ हैं,
खामोशियाँ
क्यूँ हैं यहाँ,
गुस्ताखियाँ
तुम कुछ करो ना,
माने ना
दिल ये मेरा।

तुम हो क्या,
रब की दुआ,
गुमसुम हो,
क्यों हो खफ़ा।
तुम हो क्या,
रब की दुआ,
गुमसुम हो,
क्यों हो खफ़ा..
बेवज़ह................

अंतरा 1

मुझको बता, मेरी खता, यूँ ना सता, जाँ,
मुझमें खोके, चाहत के पल, जी ले आ, ज़रा।


मुझको बता, मेरी खता, यूँ ना सता, जाँ,
मुझमें खोके, चाहत के पल, जी ले आ, ज़रा।

अंतरा 2

हो ना कैसे, ख्वाहिश तेरी ,चाहूँ तुझे, जो,
तेरे बिन तो, जीना यूँ है, जी हीं ज्यों न, हो।


हो ना कैसे, ख्वाहिश तेरी ,चाहूँ तुझे, जो,
तेरे बिन तो, जीना यूँ है, जी हीं ज्यों न, हो।


-विश्व दीपक

Sunday, March 28, 2010

पागलपन हीं मेरा फ़न है...


पागलपन हीं मेरा फ़न है!

"खुसरो" का मैं बूझ-पहेली,
अंतर यह कि उत्तर जिसका,
एक नहीं..
बदले हरदम है...

बानगी देखो
कि मिट्टी-सा
सौंधा कभी
कभी मटमैला,
कभी फूल तो कभी
हज़ारों काँटों से
रंजित यह वन है...
यह जो मेरा अगम-अगोचर-
अलसाया-सा अद्भुत मन है.......

मुझे संवारे, मुझे निखारे
मुझको मेरा सच बतला दे
ऐसा कहाँ कोई दर्पण है..

और क्या कहूँ,
यही बहुत है..
मुझे जानने वाले कहते
कभी राम
तो कभी विभीषण
और कभी मुझमें रावण है..
पागलपन हीं मेरा फ़न है....


-विश्व दीपक

Tuesday, March 23, 2010

संज्ञान-दिवस


भूल सको तो भूल जाओ कि हिन्द कभी परतंत्र भी था,
शीश उठाके जीने हेतु मृत्यु-सा कोई मंत्र भी था,
काट रहे थे तुमको जब वो और मौन था शेष जगत,
तब आए थे आगे बस हीं राजगुरू, सुखदेव, भगत.. ............

उन वीरों ने जान लुटाकर सौंपा था जो स्वर्ण-कलश,
आज उसी की सुधि लेने को आया है संज्ञान-दिवस.....
याद है कुछ या भूल गए उन वीरों का बलिदान-दिवस.....
आज है वह बलिदान-दिवस....... आज हीं है बलिदान-दिवस....


-विश्व दीपक