Saturday, February 20, 2010

रिश्तों का पनीर


कल तक जिसे सँवारने की फ़िक्र थी मुझे,
उधड़ी वो इस कदर कि मुझे रास आ गई।

शायद इसी को कहते हैं, ऐ यार, ज़िंदगी,
जब-जब किया जुदा, ये मेरे पास आ गई।

जाने ये कौन आए हैं मुझको तराशने,
कातिल की आँखों में है चमक खास आ गई।

बंजर था दिल जभी तो बेकार था अगर,
बदतर है अब जो जंगली ये घास आ गई।

मुद्दत से तूने ’तन्हा’ यूँ सहेजा था जिसे,
रिश्तों के उस पनीर में अब बास आ गई।


-विश्व दीपक

3 comments:

सागर said...

पहला शेर ही कयामत का है.

दूसरा अच्छा है
तीसरे में मुझे कुछ सुधर की गुंजाईश लग रही है (अलबत्ता मुझे ग़ज़ल की जानकारी नहीं है, फिर भी लगा )
उसके बाद लगता है बस तुक्बंकी की कोशिश की गयी है ...

मुझे क्षमा करना मेरे दोस्त ... अपनी कमअक्ली को आपके साथ बांटा है बस.

आजकल कहाँ गजलों में सारे शेर कमाल के मिलते हैं ? (बहुत कम मिलते हैं )

Please remove word verification.

विश्व दीपक said...

सागर जी,
शेर पसंद करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

तीसरे में "बहर" के हिसाब से सुधार की गुंजाईश हो सकती है, लेकिन भाव के हिसाब से मैं पक्का हूँ :)

हो सकता है कि आपको अंतिम के शेर बस तुकबंदियाँ लगी हों, लेकिन मैने तो अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश की थी कि ये "शेर" लगें। आपको अगर इनका अर्थ न समझ आया हो या फिर मामूली लगा हो तो बताईयेगा... मैं अपनी तरफ़ से स्पष्टीकरण देने की कोशिश करूँगा :D

word verification hataaya hi hua tha pehle, lekin spam comments aane lage... auto comments type.... Isliye lagaana pada.... Please Bear with me.

धन्यवाद,
विश्व दीपक

Aayush Shrivastava said...

Nice!!