Sunday, November 08, 2009

मोहे पागल कर दे..


मोहे पागल कर दे!!

इश्क़ की बूटी
डाल के लूटी,
ओ री झूठी,
सच कह -
तूने पाई कहाँ से
प्यार-मोहब्बत की यह घुट्टी,
खुद तो हुई बावरी फिरती,
मेरी भी कर दी है छुट्टी।
अब जो तेरे जाल में हूँ तो
नैनन से हीं घायल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।

बोल रसीले,
छैल-छबीले,
थोड़े ढीले,
बह कर-
मेरी ओर जुबाँ से
बने बनाए बाँध को छीले,
खुद तो मुझमें प्यास जगाए,
फिर मेरी चुप्पी को पी ले।
अब जो तेरी झील में हूँ तो
सावन का हीं बादल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।

रूप की गठरी,
रंग की मिसरी,
लेके ठहरी,
मुझ तक-
तेरी आन पड़ी है
जान-जिया की माँग ये दुहरी,
खुद तो चाल चले है सारी,
फिर मुझसे पूछे क्या बहरी।
अब जो तेरे साथ में हूँ तो
जोबन का हीं कायल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।


-विश्व दीपक

6 comments:

Lokesh said...

Aahaa

mazaa aa gaya :)

aapki poems main comment nahi karta ... bas padhke chala jata hua hamesha.

but ye mast hai ... sahi me mazaa aa gaya

Asha Joglekar said...

खुद तो मुझमें प्यास जगाए,
फिर मेरी चुप्पी को पी ले।
अब जो तेरी झील में हूँ तो
सावन का हीं बादल कर दे,
सुन री...मोहे पागल कर दे।
बहुत सुंदर ।

shravan said...

Kafi sidhat se likha gaya hai ye kavita. Its really nice.

sujit said...

its so nice, sometimes i wonder where do u get these ideas from....keep it up

गौतम राजऋषि said...

दीपक जी, हैट्स आफ़...जस्ट हैट्स आफ़ सर!

लाजवाब लिखा है आपने!

Anonymous said...
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