Friday, June 05, 2009

शहतूत

मैं अब भी वहीं उलझा हूँ,
शहतूत की डाल से
रेशम के कीड़े उतारकर
बंजर हथेली को सुपूर्द किए
महीनों हो गए,
तब से अब तक
न जाने कितनी हीं
पीढियाँ आईं-गईं,
कितने अंडे लार्वा में तब्दील हुए,
कितने हीं प्युपाओं के अंदर का लावा
खजुराहो की मूर्त्तियों तक
उफ़न-उफ़न कर
शांत हुआ
या ना भी हुआ,
कितनों ने औरों के हुनर से
रश्क कर
लार टपकाया तो
कितनों ने लार गटका,
मजे की बात यह है कि
इंसान का लार हो तो
एक "आने" को भी तरस जाए,
लेकिन
जिस लार से रिश्ते सिल जाएँ,
उसके क्या कहने!
हाँ तो, न जाने कितनों ने
कितनों के हीं इश्क से
रश्क किया,
फिर भी
कईयों ने इश्क किया
और मैं
चुपचाप तकता रहा,
सीधी हथेली किए
उन लारों को बटोरता रहा,
जिसे श्लील भाषा में रेशम कहते हैं;
मौसम आए गए
कितनों के मौसम बदले,
लेकिन
न मेरी लकीरें हीं रेशम की हो सकीं
और न मेरा
इश्क हीं रेशमी...
मैं
शहतूत के पत्तों की भांति
ठिठका रहा,
सुबकता रहा
और
किस्मत का लेखा देखिए कि
अब भी
बिन कारण वहीं उलझा हूँ,
शायद अब भी उम्मीद दम ले रही है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

2 comments:

alokadvin said...

wow very gud .... minute and practical description of the situation

somadri said...

kismat kya vakai prabal hai...?

kaise man ko thithkna padta hai, subkana padta hai...muje meri bachpan ki yaad dila di aapki prastuti ne-

http://som-ras.blogspot.com