Wednesday, May 14, 2008

नुक्ता

कहते हैं-
नुक्ते के फेर से
खुदा जुदा हो जाता है;
होते हैं ऎसे कई नुक्ते
आम जिंदगी में भी।

मोलभाव करने वाला
एक इंसान
होता है
बिहारी
और
खुलेआम लुटने वाला-
सभ्य शहरी,
यहाँ नुक्ता है-
सभ्यता...वास्तविक या फिर छद्म।
संसद से सड़क तक
जो छला जाता है
वह कहलाता है-
नागरिक
और जो
पहचानता है छलिये को
उसे बागी करार देते हैं सभी,
यहाँ नुक्ता?
एक के लिए मौन
तो दूसरे के लिए
अधिकार!
ऎसे हीं होते हैं
कई नुक्ते-
कहीं कचोटते
तो कहीं चमकते।

अत:
नुक्ता केवल एक नुक्ता
या एक बिंदु नहीं है,
एक रेखा है,
जो करती है अलग-
दिखावे को सच्चाई से,
एक भाव है,
जो बदल देता है
नज़रिया
जबकि गिनाते रह जाते हैं
लोग
दोष नज़ारे का।


यह नुक्ता
होता है हर नज़र में,
हर ईमां में होता है,
और सच पूछिए तो
हरेक इंसां में होता है..
लेकिन
हम बस
खुदा और जुदा में हीं
ढूँढते रह जाते हैं।



-विश्व दीपक 'तन्हा'

Sunday, May 11, 2008

माँ

माँ!
अब भी आसमान में
वही चाँद है,
जो तूने
मेरे जिद्द करने पर
तवे पर सेका था
और मैने अपनी नन्ही ऊँगलियों से
उसमें सेंध लगाई थी,
आह! मेरे चेहरे पर भाप
उबल पड़ा था,
तूने मेरे लिए
उस चाँद की चिमटे से पिटाई की थी,
चाँद अब भी काला पड़ा है।

माँ!
अब भी आसमान में
वही सूरज है,
जो तुझे
मुझे दुलारता देख
आईने की आँखों में चमक पड़ा था,
तू सहम गई थी
कि कहीं मुझे उसकी नज़र न लग जाए,
आय-हाय इतना डर... आईने ने कहा था
और उन आँखों को
आसमान के सुपुर्द कर दिया था
ताकि तू वहाँ तक पहुँच न सके,
पर तूने जब
अपनी आँखों का काज़ल
मेरे ललाट पर पिरो दिया था-
वह सूरज खुद में हीं जल-भुन गया था,
सूरज अब भी झुलसा हुआ है।

माँ!
क्या हुआ कि मेरी आँखों में
अब काज़ल नहीं,
क्या हुआ कि ढिठौने पुराने हो गए हैं,
क्या हुआ कि पलकों के कोर
अब बमुश्किल गीले होते हैं,
क्या हुआ कि अब नींद
बिना किसी लोरी के आती है,
क्या हुआ कि मैं अब
तेरी एक नज़र के लिए
नज़रें नहीं फेरता,
क्या हुआ कि
मैं अब दर्द सहना जानता हूँ,
क्या हुआ कि मैं
सोने के लिए
तुझसे अब
तेरी गोद नहीं माँगता,
क्या हुआ कि
अब प्यास भी
तेरे बिना हीं लग जाती है,
क्या हुआ कि मैं
अपनी नज़रों में बड़ा हो गया हूँ,
पर माँ!,
तू अपनी आँचल में छुपे
मेरे नन्हे-से बचपन को
याद कर बता कि
क्या मैं
अब भी प्यासा नहीं हूँ,
अब भी मेरी आँखों में
और मेरे ललाट पर
तेरी दुआओं का काज़ल नहीं लगा,
अब भी तेरी दो बूँद आँसू
की सुरमयी लोरियों के बिना
सो पाता हूँ,
अब भी तेरी "उप्फ" और "आह"
की मरहम के सिवा
मेरे चोटों का कोई इलाज है,
क्या मैं
अब भी तेरे कद और
तेरी दुलार के सामने
छोटा नहीं हूँ?

हाँ माँ,
मैं तेरे सामने बहुत छोटा हूँ,
तेरा एक छोटा-सा अंश हूँ,
जिसके लिए तूने
चाँद और सूरज क्या
पूरे ब्रह्मांड का सामना किया है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’