Wednesday, April 23, 2008

मीठा-सा अक्स

ना इस कदर उघारो तुम हुस्न का हुनर,
कब इश्क बेईमान हो जाए , क्या खबर !

कभी अपने गलीचे के पत्थरों को देखना,
दब-दब के मोम हो पड़े हैं सारे हमसफ़र !!

तेरे अलावा लब्ज़ इक बचा न शेर में,
वल्ला! तुम्हें है चाहती ,गज़ल किस कदर!

उनतीस बिछोह झेलकर हीं इंतज़ार में,
हर माह, माह एक शब जाए है तेरे घर!

सीसे-सबा पे, आब पे जादू किया है यूँ ,
खुशबू घुली है तेरी, बस आए तू नज़र।

किस नाते,तुझे देखकर जी रहा हूँ मैं,
हो जो भी, है तो साफगोई मेरे में मगर।

होने में तेरे देखता हूँ अक्स आप का,
खुद के बिना यूँ कैसे,'तन्हा' करे बसर।


-विश्व दीपकतन्हा

3 comments:

Anonymous said...

कसा हुआ लेखन हमेशा से आपकी विशेषता रही है और कहने की ज़रूरत नहीं की इस बार भी आपकी ग़ज़ल रंग जमाने में सफल रही है. मकता असर छोड़ जाता है और ग़ज़ल की खूबसूरती बयां करने के लिए अकेले ही काफी है.

मेरे जैसे एक आम पाठक के लिए शब्द थोड़े मुश्किल हो सकते हैं लेकिन उनका सटीक प्रयोग और प्रवाह एक सुखद अनुभूति दिलाता है. पहली दृष्टि में ही आकर्षित करने वाली इस रचना के लिए बधाई.

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav said...

waah.... mazaa aa gaya tanhaa saab...

ek dam mast likha hai.. ek ek sher babar sher hai..

Straight Bend said...

Kya baat hai! (Please remove the word verification from comments feature)

तेरे अलावा लब्ज़ इक बचा न शेर में,
वल्ला! तुम्हें है चाहती ,गज़ल किस कदर!

उनतीस बिछोह झेलकर हीं इंतज़ार में,
हर माह, माह एक शब जाए है तेरे घर!

सीसे-सबा पे, आब पे जादू किया है यूँ ,
खुशबू घुली है तेरी, बस आए तू नज़र।

किस नाते,तुझे देखकर जी रहा हूँ मैं,
हो जो भी, है तो साफगोई मेरे में मगर।