Thursday, April 24, 2008

दो गाने

गाना -१

मुखड़ा

इस बार,
मेरे सरकार!
चलो तुम जिधर,
चलूँ मैं यार !

इस बार.....
नज़रों के वार......
आर या पार।

________________

अंतरा 1

तुम न जानो, इस शहर में, कोई भी तुम-सी नहीं,
बोलकर सब, चुप रहे जो, ऎसी कोई गुम-सी नहीं।
हावड़ा ब्रिज के, नीचे बहता, पानी-सा है बदन तेरा,
चाल क्या है, तिरछी लहरें, बाजे रूनझून-सी कहीं।

____________________

मैं बेकरार....

इस बार...
नज़रों के वार..
आर या पार।

______________________________

अंतरा 2

जो कहे तू, तेरी खातिर, सारी दुनिया छोड़ दूँ हीं,
घर करूँ मै, तेरे दिल में, मेरे घर को तोड़ दूँ हीं।
प्यार क्या है, प्यार से जो, सुने मेरी बात को तू,
अपने दिल में, दिल से मेरे, जानू तुमको जोड़ दूँ हीं।

__________________

सुन दिलदार....

इस बार...
नज़रों के वार...
आर या पार...।

___________________

मेरे सरकार...
तेरे दरबार....
चलो तुम जिधर..
चलूँ मैं यार....

इस बार...
आर या पार।

_________

गाना -२

मुखड़ा
ऎ सखी, तुई मिष्ठी , सोत्ती रे,
स्वाती में सीपी का तू हीं मोती रे.

रे सोनपरी, सोनजुही तु संजोती रे,
बोल्लाम...
एक नाम, तू हीं तू...हो जी रे...।

सोत्ती रे...सोत्ती रे...
_______________________

अंतरा 1

मांझी अंखियाँ तुम्हारी, दरिया बदन है,
छलिया मुस्कान उस पर,पतवार मन है,
अगन-सी आँहें गज़ब की, सोंधा जोबन है,
बोली में रूनझून-रूनझून, तेरा टशन है।

__________________________

हूँ....हूँ...हूँ....हूँ....

कमानी लबों की....आय-हाय जोती रे,
बोल्लाम...
एक नाम....तू हीं तू.....सोत्ती रे।

_________________________

अंतरा 2

कह दूँ यूँकर सनम ,बातें जिया की,
हौले- हौले लिखूँ मैं, गज़ल अदा की,
तेरा हीं होकर जी, बनूँ दिल-निवासी,
बोलबो आमि, सोना, तुमाके भालो बासी।

_________________________

सोत्ती रे.....

हूँ...हूँ...हूँ...हूँ....

रे सोनपरी, सोनजुही तु संजोती रे,
स्वाती में सीपी का तू हीं मोती रे।

ऎ सखी , तुई मिष्ठी , सोत्ती रे,
बोल्लाम...
एक नाम, तू हीं तू...हो जी रे...।

_______________________

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, April 23, 2008

मीठा-सा अक्स

ना इस कदर उघारो तुम हुस्न का हुनर,
कब इश्क बेईमान हो जाए , क्या खबर !

कभी अपने गलीचे के पत्थरों को देखना,
दब-दब के मोम हो पड़े हैं सारे हमसफ़र !!

तेरे अलावा लब्ज़ इक बचा न शेर में,
वल्ला! तुम्हें है चाहती ,गज़ल किस कदर!

उनतीस बिछोह झेलकर हीं इंतज़ार में,
हर माह, माह एक शब जाए है तेरे घर!

सीसे-सबा पे, आब पे जादू किया है यूँ ,
खुशबू घुली है तेरी, बस आए तू नज़र।

किस नाते,तुझे देखकर जी रहा हूँ मैं,
हो जो भी, है तो साफगोई मेरे में मगर।

होने में तेरे देखता हूँ अक्स आप का,
खुद के बिना यूँ कैसे,'तन्हा' करे बसर।


-विश्व दीपकतन्हा

Tuesday, April 22, 2008

जहां...एक गज़ल


जब तलक हम बेजान थे,
इन रिश्तों के आन-बान थे।

साँस लूँगा तो धड़केगा दिल,
यही सोच ,हम हलकान थे।

रात भर जिस्म तला जिनने,
अपने थे, पिता-समान थे ।

गम कमजोर ना रहा मेरा,
तुम सभी जो कद्रदान थे।

'अति' बुरी है क्यूँकर जबकि,
पिटे वही जो बेजुबान थे।

बेवा,बच्चे हैं भूखे उनके,
इस देश पर जो कुर्बान थे।

आँखें चुभी तो जाना हमने,
अश्क-से सभी इंसान थे।

मंच सजते हैं,जहाँ पहले,
गालिब के नामो-निशान थे।

अब तन्हाई भी नहीं अपनी,
इस ज़फा से हम अंजान थे।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Saturday, April 05, 2008

पत्थर का जहां

पत्थर का खुदा,पत्थर का जहां,पत्थर का सनम भी देख लिया,
लो आज तुम्हारी महफिल में तेरा यह सितम भी देख लिया ।

तुम लाख हीं मुझसे कहती रहो,यह इश्क नहीं ऎसे होता,
जीता कोई कैसे मर-मर के,मैने यह भरम भी देख लिया।

इस बार जो मेरी बातों को बचपन का कोई मज़ाक कहा,
है शुक्र कि मैने आज के आज तेरा यह अहम भी देख लिया।

कहते हैं खुदा कुछ सोचकर हीं यह जहां हवाले करता है,
यह
ज़फा हीं उसकी सोच थी तो मैने ये जनम भी देख लिया।

-विश्व दीपक ’तन्हा’