Tuesday, December 02, 2008

अनकथ तेरी शहादत को, किस पैमाने पर तोल लिखूँ?

दो बोल लिखूँ!
शब्दकोष खाली मेरे, क्या कुछ मैं अनमोल लिखूँ!

आक्रोश उतारुँ पन्नों पर,
या रोष उतारूँ पन्नों पर,
उनकी मदहोशी को परखूँ,
तेरा जोश उतारूँ पन्नों पर?

इस कर्मठता को अक्षर दूँ,
निस्सीम पर सीमा जड़ दूँ?
तू जिंदादिल जिंदा हममें,
तुझको क्या तुझसे बढकर दूँ?
अनकथ तेरी शहादत को, किस पैमाने पर तोल लिखूँ?

मैं मुंबई का दर्द लिखूँ,
सौ-सौ आँखें सर्द लिखूँ,
दहशत की चहारदिवारी में
बदन सुकूँ का ज़र्द लिखूँ?

मैं आतंक की मिसाल लिखूँ,
आशा की मंद मशाल लिखूँ,
सत्ता-विपक्ष-मध्य उलझे,
इस देश के नौनिहाल लिखूँ?
या "राज"नेताओं के आँसू का, कच्चा-चिट्ठा खोल लिखूँ?

फिर "मुंबई मेरी जान" कहूँ,
सब भूल, वही गुणगान कहूँ,
डालूँ कायरता के चिथड़े,
निज संयम को महान कहूँ?

सच लिखूँ तो यही बात लिखूँ,
संघर्ष भरे हालात लिखूँ,
हर आमजन में जोश दिखे,
जियालों-से जज़्बात लिखूँ।
शत-कोटि हाथ मिले जो, तो कदमों में भूगोल लिखूँ!
हैं शब्दकोष खाली मेरे, क्या कुछ मैं अनमोल लिखूँ?

-विश्व दीपकतन्हा

Friday, October 17, 2008

तेरी विधा तो एक पहेली है।

कल मद्यपान से हाय-तौबा,
आज मद्यपान जीवन की शोभा,
गुरु तेरे सान्निध्य ने यह क्या कर डाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

कल बाबूजी से छुप-छुप कर,
मस्ती का लिए लाव-लश्कर,
स्वप्न-लोक जब पहुँचा था,
कुछ पल को मैं तब सकुंचा था,
आँखों में सूरज पिघला था,
लब पर धुएँ का छ्ल्ला था,
वो मेरी प्रथम कमाई थी,
सिगरेट बन मुझ तक आई थी,
पर संस्कार तो जिंदा था,
मैं खुद पर तो शर्मिंदा था,
आज तूने मेरे हृदय से छीना उजियाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

कल जिस कूँची से उपजा था,
जिसकी सूची से उपजा था,
जिसने रूह उकेरा था,
वही , मेरा जो चितेरा था -
पथ-कुपथ उसी ने आँके थे,
सही-गलत के निर्णय टाँके थे,
कल तक मेरे शब्द भी अपने थे,
घर में पलते कई सपने थे,
पर आज कूँची तो तेरी है,
तेरी विधा तो एक पहेली है।
इस चित्रपट पर रंगों का निकला दीवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

अब सपनों के रंग नए-से हैं,
रंग दिल के तो अनचढे-से हैं,
कई रंग तो हो गए फीके हैं,
होने के ही सरीखे हैं
तूने जो कूँची थामी है,
मूल्यों की हुई निलामी है,
मुझको इस कदर संवारा है,
रिश्तों को किया किनारा है,
तू देव जो जग के धन का है,
चित्रकार मेरे जीवन का है,
मेरा जीवन ही तेरी प्रतिभा का साक्षात निवाला है,
तेरे संग से मेरा चाल-ढंग भी हुआ निराला है।

विश्व दीपक 'तन्हा'

Thursday, September 25, 2008

अब तो जग, तज दे बेहोशी

सड़कों पर पड़े लोथड़ों में
ढूँढ रहा फिरदौस है जो,
सौ दस्त, हज़ार बाजुओं पे
लिख गया अजनबी धौंस है जो,
आँखों की काँच कौड़ियों में
भर गया लिपलिपा रोष है जो,
ईमां तजकर, रज कर, सज कर
निकला लिए मुर्दा जोश है जो,
बेहोश है वो!!!!

ओ गाफ़िल!
जान इंसान है क्या,
अल्लाह है क्या, भगवान है क्या,
कहते मुसल्लम ईमान किसे,
पाक दीन इस्लाम किसे,
दोजख है कहाँ, जन्नत है कहाँ,
उल्फत है क्या, नफ़रत है कहाँ,
कहें कुफ़्र किसे, काफ़िर है कौन,
रब के मनसब हाज़िर है कौन,
गीता, कुरान का मूल है क्या,
तू जान कि तेरी भूल है क्या!!!!

सबसे मीठी जुबान है जो,
है तेरी, तू अंजान है क्यों?
उसमें तू रचे इंतकाम है क्यों?


पल शांत बैठ, यह सोच ज़रा,
लहू लेकर भी तेरा दिल न भरा,
सुन सन्नाटे की सरगोशी,
अब तो जग, तज दे बेहोशी,
अब तो जग, तज दे बेहोशी।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Friday, September 19, 2008

गमनशीं

जिनके घर लगे हों यादों के काफ़िले,
इन अश्कों के अक्स से आ मिले।

कतर डाले हैं मैने पर अंधेरों के,
फिर कफ़स में शब से कैसे गिले ।

इक आह और आह! दरार चाँद में,
दरार सिल जाए , दर्द कैसे सिले।

हरदम हीं खुदाया! हैं सालते मुझे,
जिंदगी औ मौत के सब बहाने छिले।

होना मैने आप का ढो लिया सालों,
न होना तेरा इस रूह से कैसे हिले।

रौनक उन लबों की हो मेरे जिम्मे,
गमनशीं ’तन्हा’ के ख्वाब हैं खिले।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, July 30, 2008

बिस्तर

अब वह
बेतहाशा आँखों के बिस्तर पर
चादर नहीं डालती।

उसकी पलकों की सिलवटें
उघरने लगी हैं अब
और शायद
कौड़ी गिलाफ की
नुकीली हो गई है-
एक वफ़ादार ज़फ़ा के मानिंद,
आह! चुभती है बिस्तर में।
उस तकिये में
ठूँस-ठूँस कर भरी
काले फाहों की रूई
हो गई है
कोलतार का बदमिजाज चबुतरा,
जिस पर बैठ
हर पल खेलती है
यादों की आवारा टोली
जुआ
जिंदगी और बस जिंदगी का।

कहते हैं
एक समय
वह भी एक
बिस्तर हुआ करती थी
और कोई

चादर बन
आ पड़ता था उस पर।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, July 16, 2008

बाजार

मिन्नतें बाजार में बाजार से करते रहे,
मोल अपनी रूह का बेज़ार-से करते रहे।

शुक्र है कि जिंदगी रास्ते आई नहीं,
रास्तों का सर कलम लाचार-से करते रहे।

बेच ना डाले कहीं सारे हीं आसमान,
पीछा अपने आप का रफ्तार से करते रहे।

मौजज़न साँसें सभी ना समाये देह में,
शिकवा अपने भाग्य का मझधार से करते रहे।

जाना, हमने पाई जो काफ़िरों की बेरूखी,
अपने होने का गुरूर बेकार-से करते रहे।

काफिला-दर-काफिला जागती रेत को
जख्मी सब दर्दे-निहाँ दो धार से करते रहे।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, May 14, 2008

नुक्ता

कहते हैं-
नुक्ते के फेर से
खुदा जुदा हो जाता है;
होते हैं ऎसे कई नुक्ते
आम जिंदगी में भी।

मोलभाव करने वाला
एक इंसान
होता है
बिहारी
और
खुलेआम लुटने वाला-
सभ्य शहरी,
यहाँ नुक्ता है-
सभ्यता...वास्तविक या फिर छद्म।
संसद से सड़क तक
जो छला जाता है
वह कहलाता है-
नागरिक
और जो
पहचानता है छलिये को
उसे बागी करार देते हैं सभी,
यहाँ नुक्ता?
एक के लिए मौन
तो दूसरे के लिए
अधिकार!
ऎसे हीं होते हैं
कई नुक्ते-
कहीं कचोटते
तो कहीं चमकते।

अत:
नुक्ता केवल एक नुक्ता
या एक बिंदु नहीं है,
एक रेखा है,
जो करती है अलग-
दिखावे को सच्चाई से,
एक भाव है,
जो बदल देता है
नज़रिया
जबकि गिनाते रह जाते हैं
लोग
दोष नज़ारे का।


यह नुक्ता
होता है हर नज़र में,
हर ईमां में होता है,
और सच पूछिए तो
हरेक इंसां में होता है..
लेकिन
हम बस
खुदा और जुदा में हीं
ढूँढते रह जाते हैं।



-विश्व दीपक 'तन्हा'

Sunday, May 11, 2008

माँ

माँ!
अब भी आसमान में
वही चाँद है,
जो तूने
मेरे जिद्द करने पर
तवे पर सेका था
और मैने अपनी नन्ही ऊँगलियों से
उसमें सेंध लगाई थी,
आह! मेरे चेहरे पर भाप
उबल पड़ा था,
तूने मेरे लिए
उस चाँद की चिमटे से पिटाई की थी,
चाँद अब भी काला पड़ा है।

माँ!
अब भी आसमान में
वही सूरज है,
जो तुझे
मुझे दुलारता देख
आईने की आँखों में चमक पड़ा था,
तू सहम गई थी
कि कहीं मुझे उसकी नज़र न लग जाए,
आय-हाय इतना डर... आईने ने कहा था
और उन आँखों को
आसमान के सुपुर्द कर दिया था
ताकि तू वहाँ तक पहुँच न सके,
पर तूने जब
अपनी आँखों का काज़ल
मेरे ललाट पर पिरो दिया था-
वह सूरज खुद में हीं जल-भुन गया था,
सूरज अब भी झुलसा हुआ है।

माँ!
क्या हुआ कि मेरी आँखों में
अब काज़ल नहीं,
क्या हुआ कि ढिठौने पुराने हो गए हैं,
क्या हुआ कि पलकों के कोर
अब बमुश्किल गीले होते हैं,
क्या हुआ कि अब नींद
बिना किसी लोरी के आती है,
क्या हुआ कि मैं अब
तेरी एक नज़र के लिए
नज़रें नहीं फेरता,
क्या हुआ कि
मैं अब दर्द सहना जानता हूँ,
क्या हुआ कि मैं
सोने के लिए
तुझसे अब
तेरी गोद नहीं माँगता,
क्या हुआ कि
अब प्यास भी
तेरे बिना हीं लग जाती है,
क्या हुआ कि मैं
अपनी नज़रों में बड़ा हो गया हूँ,
पर माँ!,
तू अपनी आँचल में छुपे
मेरे नन्हे-से बचपन को
याद कर बता कि
क्या मैं
अब भी प्यासा नहीं हूँ,
अब भी मेरी आँखों में
और मेरे ललाट पर
तेरी दुआओं का काज़ल नहीं लगा,
अब भी तेरी दो बूँद आँसू
की सुरमयी लोरियों के बिना
सो पाता हूँ,
अब भी तेरी "उप्फ" और "आह"
की मरहम के सिवा
मेरे चोटों का कोई इलाज है,
क्या मैं
अब भी तेरे कद और
तेरी दुलार के सामने
छोटा नहीं हूँ?

हाँ माँ,
मैं तेरे सामने बहुत छोटा हूँ,
तेरा एक छोटा-सा अंश हूँ,
जिसके लिए तूने
चाँद और सूरज क्या
पूरे ब्रह्मांड का सामना किया है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Thursday, April 24, 2008

दो गाने

गाना -१

मुखड़ा

इस बार,
मेरे सरकार!
चलो तुम जिधर,
चलूँ मैं यार !

इस बार.....
नज़रों के वार......
आर या पार।

________________

अंतरा 1

तुम न जानो, इस शहर में, कोई भी तुम-सी नहीं,
बोलकर सब, चुप रहे जो, ऎसी कोई गुम-सी नहीं।
हावड़ा ब्रिज के, नीचे बहता, पानी-सा है बदन तेरा,
चाल क्या है, तिरछी लहरें, बाजे रूनझून-सी कहीं।

____________________

मैं बेकरार....

इस बार...
नज़रों के वार..
आर या पार।

______________________________

अंतरा 2

जो कहे तू, तेरी खातिर, सारी दुनिया छोड़ दूँ हीं,
घर करूँ मै, तेरे दिल में, मेरे घर को तोड़ दूँ हीं।
प्यार क्या है, प्यार से जो, सुने मेरी बात को तू,
अपने दिल में, दिल से मेरे, जानू तुमको जोड़ दूँ हीं।

__________________

सुन दिलदार....

इस बार...
नज़रों के वार...
आर या पार...।

___________________

मेरे सरकार...
तेरे दरबार....
चलो तुम जिधर..
चलूँ मैं यार....

इस बार...
आर या पार।

_________

गाना -२

मुखड़ा
ऎ सखी, तुई मिष्ठी , सोत्ती रे,
स्वाती में सीपी का तू हीं मोती रे.

रे सोनपरी, सोनजुही तु संजोती रे,
बोल्लाम...
एक नाम, तू हीं तू...हो जी रे...।

सोत्ती रे...सोत्ती रे...
_______________________

अंतरा 1

मांझी अंखियाँ तुम्हारी, दरिया बदन है,
छलिया मुस्कान उस पर,पतवार मन है,
अगन-सी आँहें गज़ब की, सोंधा जोबन है,
बोली में रूनझून-रूनझून, तेरा टशन है।

__________________________

हूँ....हूँ...हूँ....हूँ....

कमानी लबों की....आय-हाय जोती रे,
बोल्लाम...
एक नाम....तू हीं तू.....सोत्ती रे।

_________________________

अंतरा 2

कह दूँ यूँकर सनम ,बातें जिया की,
हौले- हौले लिखूँ मैं, गज़ल अदा की,
तेरा हीं होकर जी, बनूँ दिल-निवासी,
बोलबो आमि, सोना, तुमाके भालो बासी।

_________________________

सोत्ती रे.....

हूँ...हूँ...हूँ...हूँ....

रे सोनपरी, सोनजुही तु संजोती रे,
स्वाती में सीपी का तू हीं मोती रे।

ऎ सखी , तुई मिष्ठी , सोत्ती रे,
बोल्लाम...
एक नाम, तू हीं तू...हो जी रे...।

_______________________

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, April 23, 2008

मीठा-सा अक्स

ना इस कदर उघारो तुम हुस्न का हुनर,
कब इश्क बेईमान हो जाए , क्या खबर !

कभी अपने गलीचे के पत्थरों को देखना,
दब-दब के मोम हो पड़े हैं सारे हमसफ़र !!

तेरे अलावा लब्ज़ इक बचा न शेर में,
वल्ला! तुम्हें है चाहती ,गज़ल किस कदर!

उनतीस बिछोह झेलकर हीं इंतज़ार में,
हर माह, माह एक शब जाए है तेरे घर!

सीसे-सबा पे, आब पे जादू किया है यूँ ,
खुशबू घुली है तेरी, बस आए तू नज़र।

किस नाते,तुझे देखकर जी रहा हूँ मैं,
हो जो भी, है तो साफगोई मेरे में मगर।

होने में तेरे देखता हूँ अक्स आप का,
खुद के बिना यूँ कैसे,'तन्हा' करे बसर।


-विश्व दीपकतन्हा

Tuesday, April 22, 2008

जहां...एक गज़ल


जब तलक हम बेजान थे,
इन रिश्तों के आन-बान थे।

साँस लूँगा तो धड़केगा दिल,
यही सोच ,हम हलकान थे।

रात भर जिस्म तला जिनने,
अपने थे, पिता-समान थे ।

गम कमजोर ना रहा मेरा,
तुम सभी जो कद्रदान थे।

'अति' बुरी है क्यूँकर जबकि,
पिटे वही जो बेजुबान थे।

बेवा,बच्चे हैं भूखे उनके,
इस देश पर जो कुर्बान थे।

आँखें चुभी तो जाना हमने,
अश्क-से सभी इंसान थे।

मंच सजते हैं,जहाँ पहले,
गालिब के नामो-निशान थे।

अब तन्हाई भी नहीं अपनी,
इस ज़फा से हम अंजान थे।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Saturday, April 05, 2008

पत्थर का जहां

पत्थर का खुदा,पत्थर का जहां,पत्थर का सनम भी देख लिया,
लो आज तुम्हारी महफिल में तेरा यह सितम भी देख लिया ।

तुम लाख हीं मुझसे कहती रहो,यह इश्क नहीं ऎसे होता,
जीता कोई कैसे मर-मर के,मैने यह भरम भी देख लिया।

इस बार जो मेरी बातों को बचपन का कोई मज़ाक कहा,
है शुक्र कि मैने आज के आज तेरा यह अहम भी देख लिया।

कहते हैं खुदा कुछ सोचकर हीं यह जहां हवाले करता है,
यह
ज़फा हीं उसकी सोच थी तो मैने ये जनम भी देख लिया।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Friday, March 07, 2008

दंडकारण्य

कभी दंडकारण्य में विचरते थे-
दैत्य-दानव,पिशाच!
वे
अनगढे-से
अकारण हीं
विकराल रूप धरते थे,
खर-खप्पर,कृपाण-कटार का
दंभ भरते थे,
आप हीं असहज-असह्य थे,
परंतु दूसरों पर
अट्टहास करते थे।

कहते हैं-
वह दंडकारण्य-
देवताओं हेतु भी दुर्गम था,
परंतु
दुर्भाग्य कि
पंचवटी और विन्ध्याचल के मध्य
सेतु था वह।

वहाँ ,
दो तपोभूमियों के मध्य,
असुरों ने
अधिकारवश
अधर्म के शूल बोए थे।
साधु-
जो गुजरते थे,
पथ के कंटक चुन जाते थे,
परंतु पथ पर अधिकार जमाते न थे,
पथ से भयभीत थे,
परंतु पथभ्रष्ट न थे,
उन्हीं
उत्तर या दक्षिण के तपोभूमियों के थे,
परंतु अरण्य से द्वेष न रखते थे।

और वहीं
कुमति असुर
सौभाग्य और दुर्भाग्य
की परिभाषा से भी
अनभिज्ञ थे।

उसी दंडकारण्य में-
कभी धर्म ने भी पाँव धरे थे,
इतिहास कहता है कि
किन्हीं खर-दूषण असुरों का
एक राम ने वध किया था,
आश्चर्य यह कि
उस राम ने
तेरह वर्ष
उस वन में हीं
व्यतीत किये थे,
मान्यता है कि वह राम
उत्तर का था,
परंतु महत्वपूर्ण यह है कि
वह पथभ्रष्ट न था,
पथप्रदर्शक था।

वह दंडकारण्य-
फिर भी "दंडक" हीं रहा,
दो तपोभूमियों के मध्य
एक तपोवन न बन सका,
क्योंकि कुछ असुर,
असुर हीं रहे
और वह भी अनभिज्ञ-से।

वही दंडकारण्य,
सिकुड़कर अब
"महाराष्ट्र" कहलाता है,
और
आह! अब भी
कुछ राक्षस-"राज" विचरते हैं वहाँ
और दुर्गति यह कि
अब भी
"बाल"-सुलभ कृत्य करते हैं।

अत: निस्संदेह हीं
"उत्तर" का कोई अन्य राम
वर्षों से उस अरण्य में
नक्षत्रों के मेल की
राह तक रहा है।

लोकमत है कि
इतिहास स्वयं को दुहराता है!!!!

-विश्व दीपक 'तन्हा'

पंचवटी आंध्र-प्रदेश में "भद्राचलम" के समीप है और विन्ध्याचल उत्तर प्रदेश के "मिर्ज़ापुर" जिले में अवस्थित है। "दंडकारण्य" पूरे बस्तर (छत्तीसगढ), उड़ीसा, मध्य प्रदेश , महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। भूगोल की माने तो ये हिस्से इन दोनों तपोभूमियों के मध्य हीं आते है।

Wednesday, March 05, 2008

सच कहूँ तो आँखें नम हैं!

अंतिम वर्ष का छात्र हूँ। इसलिए अपने संस्थान ( I.I.T. kharagpur) एवं अपने छात्रावास से विदा लेना , नियति हीं है। इसी अवसर पर अपने दिल के कुछ उद्गार प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सच कहूँ तो आँखें नम हैं!

खिड़की, दरवाजों पर पड़े
इसकी यादों के जाले
संग लिए,
गलियारे में आते-जाते
दिन के उजाले का
रंग लिए,
टैरेस के पीपल-नीचे
जगे सपनों के निराले
ढंग लिए,
कई सौ साँसों में सालों
इसने जो पाले वो
उमंग, लिए,
चल दिया दूर-
मैं बदस्तूर !
क्या कहूँ मैं?
अब इस दिल ने
संजोए कई सारे हीं गम हैं!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं !!

सच कहूँ तो आँखें नम हैं!

बेलाग दिया जो हमको
हँसी-खुशी के कई उन
खातों को,
फूलों की बू-सी कोमल
दरो-दीवार की रूनझून
बातों को,
सब्ज-लाँन कभी धूल
और यारों की गुमसुम
रातों को,
बेबात युद्ध फिर संधि,
ऐसे अनगढे खून के
नातों को,
कर याद रोऊँ,
इन्हें कहाँ खोऊँ?
क्या कहूँ मैं?
रेशम-से वो पल हीं
नई राह में मेरे हमदम है!
सच कहूँ तो आँखें नम हैं!!!


-विश्व दीपक ’तन्हा’
५-०३-२००८

Sunday, February 10, 2008

तेरे लब

चाँद के चकले पर लबों की बेलन डाले,
बेलते नूर हैं हमे, सेकने को उजाले ।

उफ़क को घोंटकर
सिंदुर
पोर-पोर में
सी रखा है!
धोकर धूप को,
तलकर
हाय!
अधर ने तेरे चखा है!!

फलक को चूमकर
तारे
गढे हैं
तेरे ओठों ने!
हजारों आयतें,
रूबाईयाँ
आह!
इन लबों ने लखा है!!

सूरज को पीसकर,दिए इनको निवाले,
बेलते नूर हैं हम, सेकने को उजाले ।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

वसंत

झूलों ने पींगे भर दी हैं,
वसंत ले रहा हिचकोले
हर कली अलि की राह तके,
कोयल यहाँ कू-कू-कू बोले

सूरज ने की है क्या , देखो
इन स्वर्ण किरणों से अटखेली
हर वृक्ष कोपलों से लिपटा,
हँसती फिज़ाएँ हैं अलबेली

यह रात मधुर सुर-ताल लिये,
यह चाँद दूर क्यों शर्माता
एक तारा चमके आँचल में,
खुशबू अंबर की बिखराता

हर चमन सुमन से ढँका हुआ,
है पवन सुरा का नशा लिए
है चूनर हरी, धरा झूम चली
पलकों में बंद हर दिशा किए

पानी की लहर, पनघट की डगर,
मचले हर पल , हर एक जिगर
यूँ आया वसंत तो मिले अनंत,
जब प्रेम पले, पिघले भूधर

इस नृप का सब करें स्वागत अब,
चंदन, कुंकुम से तिलक करें
संग सखा लिए मनसिज आया,
जिसके तरकसे में है प्रीत जड़े

-विश्व दीपकतन्हा

Tuesday, January 29, 2008

तेरा श्रृंगार

मेरी आँखों से कभी, खुद को यूँ देखा करो,
आईना मुझको बना,श्रृंगार आहिस्ता करो

अपनी रूख को झेंपकर ,
मुझको लब पर लेपकर,
इश्क की चिंगारियों को,
सुर्ख इन क्यारियों को,
आह के रास्ते में ,कतरा-कतरा-सा करो,
आईना मुझको बना, श्रृंगार आहिस्ता करो

लफ्ज़ सब हीं टांककर,
खनक मेरी आंककर,
प्यार की एक फूंक को,
गूंथकर हर हूक को,
डोलते झुमकों-सा , कान में चस्पां करो,
आईना मुझको बना,श्रृंगार आहिस्ता करो

संग-संग बीती रैन में,
नम-से मेरे नैन में,
अपनी नाज़ौ-साज़ के
मेरे दिलनवाज़ के,
झूमते अक्स को,माथे की बिंदिया करो,
आईना मुझको बना, श्रृंगार आहिस्ता करो

मेरी आँखों से कभी, खुद को जब देखा करो,
खुद को कितना चाहोगे, खुद से हीं पूछा करो।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Wednesday, January 09, 2008

कम्प्यूटर पर चैट करें!

दिस-दैट कर यूँ चैट करें हम कम्प्यूटर पर,
इश्क-विश्क की बातें होंगी मेरे दिलवर!

ऎ डियर, नियर आना , ना मुझको तड़पाना,
धक-धक हो जाए, हर्ट को जरा धड़काना।
तुम क्रीम हो मेरी लाइफ की, ड्रीम की हो थीम तुम्हीं,
किन लफ्जों में तुम्हें कहूँ, मुश्किल है तुमको समझाना।

स्टोरी लव की तो , गूँजेगी अब शहर-शहर,
इश्क-विश्क की बातें होंगी मेरे दिलवर !

अंखियों से क्यों घूर रही तुम चोरी-चोरी,
स्लोली-स्लोली प्यार किया, कहता हूँ सौरी,
इन्फार्मेशन तुम्हें दिया जो ई-मेल पर था,
देखा तूने नहीं तो क्या यह गलती मेरी।

ऎसे-वैसे मैटर पर हो ना टाईम कवर,
इश्क-विश्क की बातें कर ले मेरे दिलवर!

कितने दिन-कितनी रैना, याद किया हमको कहना,
कब सैड रहे, कब मैड रहे, कब पड़ा तुम्हें गम को सहना,
ब्रेन रहा नर्वस मेरा, क्या था बोलो हाल तेरा,
हर इंसिडेंट , सेंट परसेंट , हमसे सच-सच कहना।

अब स्वीट-हार्ट , की-बोर्ड पर दौड़ा दे फिंगर,
इश्क-विश्क की बातें कर ले मेरे दिलवर!

आजा तुमको स्वीटजरलैंड की सैर करा दूँ,
एड्रेस अपना नील-गगन, चल घर दिखला दूँ,
ऎ मिस! तुमको मिस किया कितना मैने,
लव का मिनिंग इस पल तुमको मैं बतला दूँ।

जरा संभल! कहीं पागल हो ना कम्प्यूटर,
रोक दे बातें, अब बंद हो रहा है दफ्तर ।

-विश्व दीपक 'तन्हा'
7-10-2002