Thursday, September 20, 2007

उरज

तन-उपवन के दो पनघट में, हैं रस के गागर भरे-भरे,
प्रतिपल पल्लवित इन पुष्पों के हर श्रृंगार हैं हरे-हरे,
ज्यों मृदुल मनोरम मलयों-से हैं उर पर पयोधि जड़े-जड़े,
मन-मदन को हर क्षण हर्षाते, कालिंदी-कूल कदंब ये बड़े-बड़े।

गर्वित इन वलयों के मानिंद, विधि-गेह मिलिंद की सुषमा है,
कृश-तनु पर धारित धरणी में, शत-शत रवियों की ऊष्मा है,
देवदारू-विटपों-सा अविचल शिखरों की श्यामल गरिमा है,
मानस के मुक्तों-सा मधुमय , मणि-मज्जित इसकी महिमा है।

निज गेह की अनुकृति निरख रहा, सप्तयति व्योम में भयभीत-सा,
वह नीलाम्बर निर्दोष हुआ, गौर-वर्ण जो सम्मुख गर्वित-सा,
शशि श्यामल होकर शोभित है, लगे श्वेत-रंग भी कल्पित-सा,
द्वि-व्योम धरे हैं चारू-चंद्र , जहाँ वितत व्योम है विस्तृत-सा।

कल-कल जल के तनु-सरवर में, सरसिज मनसिज-सा पुष्पित है,
उर पर उद्धृत पद्माकर में, द्वि-अब्ज पत्र-सा प्लावित है,
कलियों की कोमल काया पर, अधर-नेत्र अलिवृंद मोहित है,
तरूण-उपवन में मुखरित यह मदन, यौवन कानन में सिंचित है।

भव-भावों , प्रीत-पड़ावों से , हुआ हरित-हृदय स्पंदित जब,
धड़कन की ध्वनि पर धमनी हुई, लख कांत-प्रेम कल्लोलित जब,
लगे मंत्रमुग्ध-से मूर्त्त-अमूर्त्त, हुआ श्वासोच्छास सुवासित जब,
लिय तड़ित-तेज़ द्वि-तुहिनों मे, हुआ उर से उरज स्फुटित तब।

-विश्व दीपक

Saturday, September 08, 2007

रहबर

गाहे-बगाहे मेरी राहों से जब तुम गुजरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं, जिस ओर रूख करती हो।

दर्पण छिला-छिला है,
दीवार अनसुने हैं,
पलछिन छिने हुए हैं,
लम्हें गिने-चुने हैं,
जो तुम नहीं तो देखो
तन्हाई हीं बुने हैं,
अघोर मेरे घर में
ये सपने हुए दुने हैं-
तुम चौखट से मेरे जाने कब घर में उतरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं , जिस और रूख करती हो।

पत्थर-कलेजा लेकर
इंसान कर दिया है,
ईमान ने तेरे मुझे
बदगुमान कर दिया है,
मेरी रूह को कभी का
हमनाम कर दिया है,
बाहों को तेरे जबसे
दरम्यान कर दिया है,
रिश्ते का रूप लेकर हीं रहबर तुम संवरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं, जिस ओर रूख करती हो।

-विश्व दीपक 'तन्हा'