Tuesday, July 03, 2007

त्रिवेणी

टुकड़ों में जी रहे थे तो,
रिश्ते के धागे बाँध लिये।

फिर जुस्तजू को जबरन क्यों घसीटते हो।
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तपेदिक से लड़ती हड्डियों में,
साँसें भी फंसती , फटती हैं।

जहां के मानस पर लेकिन कोई खरोंच नहीं आती।
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दो लम्हा हीं जिंदगी है,
एक करवट तू, दूजा आखिरी है।

शिकारा डाल रखा है माझी के भरोसे।
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हथेली पर जब किसी और की मेंहदी सज़ती है,
वफा का हर सफ़ा पीला पड़ जाता है।

यकीनन वक्त हर किसी को तस्लीम नहीं करता।
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वो कुरेदते हैं लाश के हर आस को,
कहीं इनमें बीते लम्हों का अहसास न हो।

एक जमाने में उन्हें हमारे ऎतबार पर हीं ऎतबार था।
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लाख समझाया मुर्दों में जान नहीं आती,
फिर भी वो हमारे कब्र पर रोया करते हैं।

समझ का बांध शायद अश्कों को रोक नहीं पाता।
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इश्क ने ऐसा जुल्म किया,
वो हमसे मिलने खुदा के दर पर आ गए।

पता घर का दिया था, खुदा का तो नहीं।
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मत डाल शिकारा यहाँ , हर ओर है भंवर,
माझी है मजबूर , ना है साहिल की खबर।

पत्थर का समुंदर है, कश्ती टूट जाएगी।
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सपनों के तार भी अब जुड़ते नहीं,
नज़र छिपती है , अपनी हीं नज़र से।

वक्त के तिनके हैं, घर तोड़कर आए हैं।
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खंडहर में उसने कुछ बुत पाल रखे हैं,
अपनी नज़रों के सहरे से वो उन्हें रोज भिंगोता है।

रिश्तों की कैद साँसों को भी थमने नहीं देती।
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ना हीं तू करीब है दम जुटाने के लिए,
ना हीं यादें करीब हैं गम लुटाने के लिए।

मुफलिस हूँ, बस जिये जा रहा हूँ।
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कुछ साँस का सामान शर्तों पे जुटाते रहे,
एक मुश्त पस्त ना हुए, पसलियाँ सूद में जलाते रहे।

बेसब्र-सी थी जिंदगी, सब्र मौत का भी गंवाते रहे।
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संकरे शहर में सकपकाता है सहर भी,
कब जाने सब का सूरज शब में गुम कहीं हो जाए।

यहाँ तो हर पेट की राह मृगमरीचिका बनी है।
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बर्तनों-सा खाली पेट कतार में समेट कर, उनके घर,
धूप में पकती हुईं कुछ पथराई आँखें दिखीं।

जिंदगी मिलेगी मुर्दों को अफवाह उड़ी है शायद।
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तेरे आसमां में गुम हुए मकबूल हो गए,
ऎ हूर दीदार-ए-माह में मशगूल हो गए।

मेरा साया है चाँद पर या तेरे ओठ का तिल है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

3 comments:

Anonymous said...

शब्दशिल्पीजी,

वाह! वाह! ही कहने का मन है आज ;)

त्रिवेणियाँ जो सबसे ज्यादा पसन्द आई -

लाख समझाया मुर्दों में जान नहीं आती,
फिर भी वो हमारे कब्र पर रोया करते हैं।

समझ का बांध शायद अश्कों को रोक नहीं पाता।


बधाई!!!

Neeraj Rohilla said...

बहुत सुंदर त्रिवेणियाँ पढवायीं हैं आपने, आशा है कि आगे भी ऐसी उत्तम रचनायें पढवाते रहेंगे ।

साभार स्वीकार करें,
नीरज

Gaurav Shukla said...

यह विधा बहुत दिनों बाद पढी, आनन्द आ गया दीपक जी
त्रिवेणी सच में बहुत खूबसूरत है

"टुकड़ों में जी रहे थे तो,
रिश्ते के धागे बाँध लिये।

फिर जुस्तजू को जबरन क्यों घसीटते हो।"
बहुत खूब, बहुत अच्छा लिखा है

साभार
गौरव शुक्ल