Saturday, July 21, 2007

चुस्की और चस्का

पहली बार कोई हास्य-कविता लिख रहा हूँ। अपने विचारों से मुझे अवगत जरूर करेंगे।


मित्र उवाच-
तुम "अनलक" के उपासक हो,
अबतक बीस सावन बीते,
पर अबतक हो रीते-रीते,
न कला न कौफी कुछ भी नहीं,
हुई कसर पूरी सब रही-सही
किसी मोहिनी का भी ट्रेंड नहीं,
तेरी कोई भी तो गर्लफ्रेंड नहीं,
पर मैं हूँ दो कदम आगे,
आज आफिस में अंतिम दिन है,
है प्रजेंटेशन-
पर नो टेंशन,
हूँ चिकना-चुपड़ा साफ-सुथरा,
सबको इंप्रेस कर लूंगा,
और साथ हीं साथ उससे पहले
आज कौफी पीलाकर उसे,
मतलब कि पटाकर उसे,
जीवन के सारे क्लेश हर लूंगा,
वह चस्का है
यह चुस्की है,
कामिनी हंसी
कौफी मुस्की है,
चल उसे रीझाकर आता हूँ,
टाटा-बाय
मैं भागे-भागे जाता हूँ।

"कुछ देर बाद"-
अरे छोड़ यार,
सब माया-मोह का है व्यापार।
टांय-टांय-फिस्स हुए मगर,
सांय-सांय कर
देखो हमभी कलटी हो गए
और तो और
नहीं किसी की पड़ी नज़र।

अपन ने छोड़ा-
हा-हा-हा-हा
कितने खुश हो,
बचकर छिप-छिपकर आए हो,
रनछोड़ मेरे
चस्के से पिटकर आए हो,
अब थोड़ा सा
नीचे देखो-
शर्ट पर पड़ी कौफी के
कार्बन कापी पर
आईलाइट तो फेंको,
देखो तो अपनी चुस्की में
किस कदर नहा कर आए हो।

अब हंसने की मेरी बारी है,
बड़ी मुश्किल से ताड़ी है,
थोड़ी रोनी सूरत डालो भी,
हर रोम-रोम खंगालो भी।
तेरे ट्रेंड, गर्लफ्रेंड की महिमा से
तेरा यूँ काया-कल्प हुआ,
लव-लाईफ तो धुमिल हुई हीं
और
शर्ट चेंज करोगे कहाँ कहो,
मेरी नज़रों में मेरे यार अहो-
सक्सेश-परसेंटेज अल्प हुआ।

उनके फिंगर-प्रिंट के दम पर तो
फ्री का मेक-अप गालों पर है,
उस ओवर-प्रजेंटेशन के कारण हीं,
तेरा प्रजेंटेशन सवालॊं पर है।



-विश्व दीपक 'तन्हा'

Tuesday, July 03, 2007

त्रिवेणी

टुकड़ों में जी रहे थे तो,
रिश्ते के धागे बाँध लिये।

फिर जुस्तजू को जबरन क्यों घसीटते हो।
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तपेदिक से लड़ती हड्डियों में,
साँसें भी फंसती , फटती हैं।

जहां के मानस पर लेकिन कोई खरोंच नहीं आती।
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दो लम्हा हीं जिंदगी है,
एक करवट तू, दूजा आखिरी है।

शिकारा डाल रखा है माझी के भरोसे।
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हथेली पर जब किसी और की मेंहदी सज़ती है,
वफा का हर सफ़ा पीला पड़ जाता है।

यकीनन वक्त हर किसी को तस्लीम नहीं करता।
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वो कुरेदते हैं लाश के हर आस को,
कहीं इनमें बीते लम्हों का अहसास न हो।

एक जमाने में उन्हें हमारे ऎतबार पर हीं ऎतबार था।
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लाख समझाया मुर्दों में जान नहीं आती,
फिर भी वो हमारे कब्र पर रोया करते हैं।

समझ का बांध शायद अश्कों को रोक नहीं पाता।
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इश्क ने ऐसा जुल्म किया,
वो हमसे मिलने खुदा के दर पर आ गए।

पता घर का दिया था, खुदा का तो नहीं।
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मत डाल शिकारा यहाँ , हर ओर है भंवर,
माझी है मजबूर , ना है साहिल की खबर।

पत्थर का समुंदर है, कश्ती टूट जाएगी।
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सपनों के तार भी अब जुड़ते नहीं,
नज़र छिपती है , अपनी हीं नज़र से।

वक्त के तिनके हैं, घर तोड़कर आए हैं।
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खंडहर में उसने कुछ बुत पाल रखे हैं,
अपनी नज़रों के सहरे से वो उन्हें रोज भिंगोता है।

रिश्तों की कैद साँसों को भी थमने नहीं देती।
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ना हीं तू करीब है दम जुटाने के लिए,
ना हीं यादें करीब हैं गम लुटाने के लिए।

मुफलिस हूँ, बस जिये जा रहा हूँ।
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कुछ साँस का सामान शर्तों पे जुटाते रहे,
एक मुश्त पस्त ना हुए, पसलियाँ सूद में जलाते रहे।

बेसब्र-सी थी जिंदगी, सब्र मौत का भी गंवाते रहे।
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संकरे शहर में सकपकाता है सहर भी,
कब जाने सब का सूरज शब में गुम कहीं हो जाए।

यहाँ तो हर पेट की राह मृगमरीचिका बनी है।
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बर्तनों-सा खाली पेट कतार में समेट कर, उनके घर,
धूप में पकती हुईं कुछ पथराई आँखें दिखीं।

जिंदगी मिलेगी मुर्दों को अफवाह उड़ी है शायद।
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तेरे आसमां में गुम हुए मकबूल हो गए,
ऎ हूर दीदार-ए-माह में मशगूल हो गए।

मेरा साया है चाँद पर या तेरे ओठ का तिल है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’