Friday, June 15, 2007

वक्त (पार्ट ४)

बड़ा जिद्दी था वह,
मुझसे हमेशा
दौड़ में बाजी लगाया करता था,
जानता था कि जीत जाएगा।
पर अब नहीं,
अब वो नजर भी नहीं आता,
क्योंकि
अब मैं जो जिद्दी हो गया हूँ,
न थकने की जिद्द पा ली है मैने।
शायद वक्त था वह,
कब का मुझसे पिछड़ चुका है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

5 comments:

alokadvin said...

क्योंकि
अब .......... maine apni aankhe band kar li..
din ko raat kahne ki zid pakdi hain..
pareshaaan hoon , ghayal hoon , majboor hoon ...

kun ?? ....
sach kehte hain - aakhir itni baar harne ka asar to waqt ke saath bhi nahi jaata...

शैलेश भारतवासी said...

पूरी तरह से सत्य है-

"शायद वक्त था वह,
कब का मुझसे पिछड़ चुका है।"

आजकल इसी रूप में आधुनिक लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं।

Anonymous said...

अब मैं जो जिद्दी हो गया हूँ,
न थकने की जिद्द पा ली है मैने।

बहुत ही सुंदर पंक्तियां हैं!!

BiDvI said...

इन पंक्तियों को मैं निराशावादी दृष्टिकोण के बजाए ...एक दृढ़ निश्चय , लगान और वक़्त के पहले रहने की ख़्वाहिश के तौर पे लेता हूँ |

ज़िद्द ... ज़िद्द ना हो के निश्चय है ....

ख्वाब है जीतने का ....

इन ख्वाबों के आगे वक़्त भी झुक चुका है .....

Anonymous said...

वक्त को पछाड़ने के लिये बधाई स्वीकार करें! :)