Thursday, April 05, 2007

मैं

सीधी-सादी बोली से कुछ शब्द उधार मैं लेता हूँ,
फिर बाणिक को मैं ब्याज-सहित अपना काव्यालय देता हूँ।

माँ भारती के चरणों से अपनी जिह्वा तर करता हूँ,
फिर भारत माँ के मस्तक पर अंतरिक्ष का रूख मैं जड़ता हूँ।

मैं उर्दू के अल्फाज़ जब भी अपने छंदों में भरता हूँ,
गंगा के जल को पाँच वक्त अशआर नज़र मैं करता हूँ।

मैं पिता की तनी कमर बनकर सीने को संबल देता हूँ,
सफ़हों पे उनके सपनों को स्याही के दम पर सेता हूँ।

मैं बहना की चुन्नी बनकर उसके माथे पर रहता हूँ,
राखी की लाज लेखनी में भरता हूँ, खुद को लहता हूँ।

मैं प्रियतमा की मेंहदी में बसे प्रेम-चंद्र पर रजता हूँ,
उसके ख्वाबों का बन चकोर हर एक छंद में सजता हूँ।

मैं माँ को उसके बेटे का हर एक रूप दिखलाता हूँ,
अपनी मैय्यत का बोध करा उन आँखों के मोती पाता हूँ।

मैं अमर के शब्दचित्र में उतरी एक छोटी-सी कविता हूँ,
है शुक्र कि मैं भी उस जैसा कई लोकों का रचयिता हूँ।

शब्द-कोष ->
अशआर=गज़ल/शायरी
सफहों= कागज़
लहना= पाना
रजना=रंगा जाना
अमर=प्रभु
-विश्व दीपक 'तन्हा'