Monday, December 31, 2007

बावरा! हूँ ना?

सुन!
बावरा हो गया हूँ मैं,
या कह ले
बावरा हूँ मैं।
जिसे पाँच साल
देखा, चाहा, पूजा
उसे हटा चुका हूँ
दिल-दिमाग से
और
तेरी फोटो
आज चुपके से देखी
अलबम में
और
सोचने लगा हूँ तुझे,
तेरे नैन-नक्श,
तेवर, नखरे
सब गढ डाले हैं।

अब
तू हीं कह
शादी करेगी इस बावरे से?
देख!
वह करना चाहता थी
पर......।

बता!
कैसे करेगी शादी.......
यकीन भी कर पाएगी
मुझ पर,
जबकि
मैं भी नहीं करता !!

सच में-
बावरा हूँ मैं,
हूँ ना?


-विश्व दीपक 'तन्हा'

Friday, November 30, 2007

वफ़ा

ऎसी सोहबत पड़ी,
हर
तरफ से हीं मुझपर है लानत पड़ी,
मय के आगोश में इस कदर डूबा हूँ,
अब तो नाजुक है मेरी हालत बड़ी

ऎसी सोहबत पड़ी........

उनकी काफ़िर निगाहों ने तोड़ा मुझे,
इक झलक देकर आहों से जोड़ा मुझे,
कारवां से उठाकर तन्हाई दी,
हर पहर जाम की है जरूरत पड़ी

ऎसी सोहबत पड़ी........

हूर--जन्नत कहकर नवाजा उन्हें,
हर कदम हम-कदम-सा चाहा उन्हें,
यूँ सितम कर सितमगर ठुकरा गए,
अब तो जीने की हर एक चाहत मरी

ऎसी सोहबत पड़ी........

वो तो है बेवफ़ा, उसने की है ज़फ़ा,
ये मेरा यार मुझसे है करता वफ़ा,
इस जहां की नज़र में यह कुछ भी रहे,
मेरी आँखों में इसकी है इज़्ज़त बड़ी

ऎसी सोहबत पड़ी.......

दर्द--दिल कितना भी दबाता हूँ पर,
जाम के साथ ये तो छलक जाता है,
हर जख्म को मिटा दूँगा वादा है यह,
इस जिगर को मिले तो मोहलत बड़ी

ऎसी सोहबत पड़ी......

है खुदा तुमसे मुझको बस इतनी गिला,
है दिया क्यों इबादत का ऎसा सिला,
संगमरमर पर कालिख ऎसी पुती,
मुँह छिपाकर किनारे है कुदरत खड़ी


ऎसी सोहबत पड़ी,
हर तरफ से हीं मुझपर है लानत पड़ी,
क्या कहूँ दोस्तों अपने बारे में मैं,
अब तो खुद से हीं मुझको है नफ़रत बड़ी



-विश्व दीपक 'तन्हा'

Saturday, October 27, 2007

तेरी आँखों में आसमां

तेरी आँखों में आसमां आकर यूँ भर गया,
तूने उठाई पलकें जो, सूरज सँवर गया।
तारों के तार बुन रही पलकों के कोर पर,
उस चाँदनी का हुस्न, गिरकर निखर गया।

चिलमन से छन-छनकर,
मुझको निहारती,
तेरी इस रोशनी से मैं
जी-जीकर मर गया,
तूने उठाई पलकें जो, सूरज सँवर गया।

कुहरे-सा एक-एक पल,
तेरे करीब में,
वक्त की सड़क पर यूँ
जम कर बिखर गया,
तूने उठाई पलकें जो, सूरज सँवर गया।

अलकों में रातरानी,
भौंह पर यह रात फ़ानी,
गालों पर आसमानी
सिंदुर की कहानी।

दर्पण थमा-थमाकर,
मेरी निगाह को,
सीसे-सा तेरा नूर तो
कई रूप धर गया,
तूने उठाई पलकें जो, सूरज सँवर गया।

ओठों पर भर-भराकर,
तुम्हारे लोच से
क्षितिज से टूटकर वो
इन्द्रधनक उतर गया,
तूने उठाई पलकें जो, सूरज सँवर गया।

गरदन पर धूप मानी,
कांधों पर छांव दानी,
कटि पे बे-म्यानी
तलवार की निशानी।

नख-शिख यूँ रूमानी तुझे देखकर शायद,
जहां का हरेक शय,तुझमें हीं जड़ गया,
तेरी आँखों में आसमां आकर यूँ भर गया,
तूने उठाई पलकें जो , सूरज सँवर गया।


-विश्व दीपक 'तन्हा'

Thursday, September 20, 2007

उरज

तन-उपवन के दो पनघट में, हैं रस के गागर भरे-भरे,
प्रतिपल पल्लवित इन पुष्पों के हर श्रृंगार हैं हरे-हरे,
ज्यों मृदुल मनोरम मलयों-से हैं उर पर पयोधि जड़े-जड़े,
मन-मदन को हर क्षण हर्षाते, कालिंदी-कूल कदंब ये बड़े-बड़े।

गर्वित इन वलयों के मानिंद, विधि-गेह मिलिंद की सुषमा है,
कृश-तनु पर धारित धरणी में, शत-शत रवियों की ऊष्मा है,
देवदारू-विटपों-सा अविचल शिखरों की श्यामल गरिमा है,
मानस के मुक्तों-सा मधुमय , मणि-मज्जित इसकी महिमा है।

निज गेह की अनुकृति निरख रहा, सप्तयति व्योम में भयभीत-सा,
वह नीलाम्बर निर्दोष हुआ, गौर-वर्ण जो सम्मुख गर्वित-सा,
शशि श्यामल होकर शोभित है, लगे श्वेत-रंग भी कल्पित-सा,
द्वि-व्योम धरे हैं चारू-चंद्र , जहाँ वितत व्योम है विस्तृत-सा।

कल-कल जल के तनु-सरवर में, सरसिज मनसिज-सा पुष्पित है,
उर पर उद्धृत पद्माकर में, द्वि-अब्ज पत्र-सा प्लावित है,
कलियों की कोमल काया पर, अधर-नेत्र अलिवृंद मोहित है,
तरूण-उपवन में मुखरित यह मदन, यौवन कानन में सिंचित है।

भव-भावों , प्रीत-पड़ावों से , हुआ हरित-हृदय स्पंदित जब,
धड़कन की ध्वनि पर धमनी हुई, लख कांत-प्रेम कल्लोलित जब,
लगे मंत्रमुग्ध-से मूर्त्त-अमूर्त्त, हुआ श्वासोच्छास सुवासित जब,
लिय तड़ित-तेज़ द्वि-तुहिनों मे, हुआ उर से उरज स्फुटित तब।

-विश्व दीपक

Saturday, September 08, 2007

रहबर

गाहे-बगाहे मेरी राहों से जब तुम गुजरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं, जिस ओर रूख करती हो।

दर्पण छिला-छिला है,
दीवार अनसुने हैं,
पलछिन छिने हुए हैं,
लम्हें गिने-चुने हैं,
जो तुम नहीं तो देखो
तन्हाई हीं बुने हैं,
अघोर मेरे घर में
ये सपने हुए दुने हैं-
तुम चौखट से मेरे जाने कब घर में उतरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं , जिस और रूख करती हो।

पत्थर-कलेजा लेकर
इंसान कर दिया है,
ईमान ने तेरे मुझे
बदगुमान कर दिया है,
मेरी रूह को कभी का
हमनाम कर दिया है,
बाहों को तेरे जबसे
दरम्यान कर दिया है,
रिश्ते का रूप लेकर हीं रहबर तुम संवरती हो,
मुकाम चल पड़ते हैं, जिस ओर रूख करती हो।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Saturday, July 21, 2007

चुस्की और चस्का

पहली बार कोई हास्य-कविता लिख रहा हूँ। अपने विचारों से मुझे अवगत जरूर करेंगे।


मित्र उवाच-
तुम "अनलक" के उपासक हो,
अबतक बीस सावन बीते,
पर अबतक हो रीते-रीते,
न कला न कौफी कुछ भी नहीं,
हुई कसर पूरी सब रही-सही
किसी मोहिनी का भी ट्रेंड नहीं,
तेरी कोई भी तो गर्लफ्रेंड नहीं,
पर मैं हूँ दो कदम आगे,
आज आफिस में अंतिम दिन है,
है प्रजेंटेशन-
पर नो टेंशन,
हूँ चिकना-चुपड़ा साफ-सुथरा,
सबको इंप्रेस कर लूंगा,
और साथ हीं साथ उससे पहले
आज कौफी पीलाकर उसे,
मतलब कि पटाकर उसे,
जीवन के सारे क्लेश हर लूंगा,
वह चस्का है
यह चुस्की है,
कामिनी हंसी
कौफी मुस्की है,
चल उसे रीझाकर आता हूँ,
टाटा-बाय
मैं भागे-भागे जाता हूँ।

"कुछ देर बाद"-
अरे छोड़ यार,
सब माया-मोह का है व्यापार।
टांय-टांय-फिस्स हुए मगर,
सांय-सांय कर
देखो हमभी कलटी हो गए
और तो और
नहीं किसी की पड़ी नज़र।

अपन ने छोड़ा-
हा-हा-हा-हा
कितने खुश हो,
बचकर छिप-छिपकर आए हो,
रनछोड़ मेरे
चस्के से पिटकर आए हो,
अब थोड़ा सा
नीचे देखो-
शर्ट पर पड़ी कौफी के
कार्बन कापी पर
आईलाइट तो फेंको,
देखो तो अपनी चुस्की में
किस कदर नहा कर आए हो।

अब हंसने की मेरी बारी है,
बड़ी मुश्किल से ताड़ी है,
थोड़ी रोनी सूरत डालो भी,
हर रोम-रोम खंगालो भी।
तेरे ट्रेंड, गर्लफ्रेंड की महिमा से
तेरा यूँ काया-कल्प हुआ,
लव-लाईफ तो धुमिल हुई हीं
और
शर्ट चेंज करोगे कहाँ कहो,
मेरी नज़रों में मेरे यार अहो-
सक्सेश-परसेंटेज अल्प हुआ।

उनके फिंगर-प्रिंट के दम पर तो
फ्री का मेक-अप गालों पर है,
उस ओवर-प्रजेंटेशन के कारण हीं,
तेरा प्रजेंटेशन सवालॊं पर है।



-विश्व दीपक 'तन्हा'

Tuesday, July 03, 2007

त्रिवेणी

टुकड़ों में जी रहे थे तो,
रिश्ते के धागे बाँध लिये।

फिर जुस्तजू को जबरन क्यों घसीटते हो।
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तपेदिक से लड़ती हड्डियों में,
साँसें भी फंसती , फटती हैं।

जहां के मानस पर लेकिन कोई खरोंच नहीं आती।
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दो लम्हा हीं जिंदगी है,
एक करवट तू, दूजा आखिरी है।

शिकारा डाल रखा है माझी के भरोसे।
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हथेली पर जब किसी और की मेंहदी सज़ती है,
वफा का हर सफ़ा पीला पड़ जाता है।

यकीनन वक्त हर किसी को तस्लीम नहीं करता।
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वो कुरेदते हैं लाश के हर आस को,
कहीं इनमें बीते लम्हों का अहसास न हो।

एक जमाने में उन्हें हमारे ऎतबार पर हीं ऎतबार था।
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लाख समझाया मुर्दों में जान नहीं आती,
फिर भी वो हमारे कब्र पर रोया करते हैं।

समझ का बांध शायद अश्कों को रोक नहीं पाता।
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इश्क ने ऐसा जुल्म किया,
वो हमसे मिलने खुदा के दर पर आ गए।

पता घर का दिया था, खुदा का तो नहीं।
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मत डाल शिकारा यहाँ , हर ओर है भंवर,
माझी है मजबूर , ना है साहिल की खबर।

पत्थर का समुंदर है, कश्ती टूट जाएगी।
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सपनों के तार भी अब जुड़ते नहीं,
नज़र छिपती है , अपनी हीं नज़र से।

वक्त के तिनके हैं, घर तोड़कर आए हैं।
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खंडहर में उसने कुछ बुत पाल रखे हैं,
अपनी नज़रों के सहरे से वो उन्हें रोज भिंगोता है।

रिश्तों की कैद साँसों को भी थमने नहीं देती।
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ना हीं तू करीब है दम जुटाने के लिए,
ना हीं यादें करीब हैं गम लुटाने के लिए।

मुफलिस हूँ, बस जिये जा रहा हूँ।
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कुछ साँस का सामान शर्तों पे जुटाते रहे,
एक मुश्त पस्त ना हुए, पसलियाँ सूद में जलाते रहे।

बेसब्र-सी थी जिंदगी, सब्र मौत का भी गंवाते रहे।
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संकरे शहर में सकपकाता है सहर भी,
कब जाने सब का सूरज शब में गुम कहीं हो जाए।

यहाँ तो हर पेट की राह मृगमरीचिका बनी है।
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बर्तनों-सा खाली पेट कतार में समेट कर, उनके घर,
धूप में पकती हुईं कुछ पथराई आँखें दिखीं।

जिंदगी मिलेगी मुर्दों को अफवाह उड़ी है शायद।
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तेरे आसमां में गुम हुए मकबूल हो गए,
ऎ हूर दीदार-ए-माह में मशगूल हो गए।

मेरा साया है चाँद पर या तेरे ओठ का तिल है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Friday, June 29, 2007

तेरे कारण

शब जला है,
सब जला है,
बाअदब रब जला है,
चाँद के सिरहाने-
आसमां का लब जला है।

तेरी आँखों की अंगीठी
में गले जब नींद मीठी,
भाप बनकर ख्वाब,छनकर,
तारों की हवेलियों में,
अर्श पर तब-तब जला है।

कल शबनमी शीतलपाटी,
रात भर घासों ने काटी,
गुनगुनी बोली से तेरी,
हवाओं के तलवे तले,
सुबह ओस बेढब जला है।

जब इश्क के साहिलों पर,
आई तू परछाई बनकर,
दरिया के दरीचे से फिर,
झांकती हर रूह का
हर तलब बेसबब जला है।

तेरे दर तक की सड़क में,
नैन गाड़, बेधड़क ये,
वस्ल के पैरोकार-सा,
रोड़ों पर कोलतार-सा,
होश का नायब जला है।

शब जला है,
सब जला है,
तेरे दीद के लिए हीं,
चाँद के सिरहाने-
आसमां का लब जला है।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Friday, June 15, 2007

वक्त (पार्ट ५)

कुछ साल पहले,
हम तीन संग थे-
तुम , मैं और वक्त,
फिर तुम कहीं गुम हो गए,
तब से न जाने क्यों
वक्त भी मुझसे रूठ गया है,
सुनो -
तुम बहुत प्यारी थी ना उसको,
शायद तुमसे हीं मानेगा,
उसे बहला-फुसलाकर भेज दो,
और सुनो,उसके लिए-
तुम भी आ जाओ ना।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

वक्त (पार्ट ४)

बड़ा जिद्दी था वह,
मुझसे हमेशा
दौड़ में बाजी लगाया करता था,
जानता था कि जीत जाएगा।
पर अब नहीं,
अब वो नजर भी नहीं आता,
क्योंकि
अब मैं जो जिद्दी हो गया हूँ,
न थकने की जिद्द पा ली है मैने।
शायद वक्त था वह,
कब का मुझसे पिछड़ चुका है।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Thursday, June 14, 2007

वक्त (पार्ट २ एवं ३)

(२)
तन्हा था ,
तो वक्त ने तुमसे मिलवा दिया,
तुमने प्यार दिया

तो
मैं भूल गया कि
विकलाँग है मेरा शरीर।

अब दया दी है तुमने,
देखो मेरी रूह भी विकलांग हो गई है।
तुम्हारी कोई गलती नहीं है,
तुमसे क्यों कुछ कहूँ,
बस वक्त से नाराजगी है,
उसी को सजा दूँगा।

_________________________
(३)
वह बरगद-
जवां था जब,

कई राहगीर थे उसकी छांव में,
वक्त भी वहीं साँस लेता था,
फिर बरगद बुढा हुआ,
राहगीरों ने
उससे उसकी छांव छीन ली,
अब कई घर हैं वहाँ,
वक्त अब उन घरों में जीता है,
सच हीं कहते हैं -
वक्त हमेशा एक-सा नहीं होता।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Wednesday, June 13, 2007

वक्त

वक्त-
एक कूली है,
वादों को ढोता है

और
लम्हों की मजूरी लेता है।
वादे अगर बढ जाते हैं
तो थककर बैठ जाता है।
बड़ा ईमानदार है,
फिर मजूरी भी कम लेता है।
और लोग कहते हैं

कि
वक्त गुजरता हीं नहीं।


-विश्व दीपक ’तन्हा’

Monday, June 11, 2007

इसलिए तुम कवि हो

"पृष्ठ पीठ नहीं दीखाते,
शब्द बंजर नहीं होते,
कविताएँ झूठी नहीं होती,
कवि कठोर नहीं होता"-
कब तक संजोती रहूँ मैं
तुम्हारे इतने सारे सच।

हाँ यकीन था मुझे,
अब भी याद है-
वो तुम्हारा पहला
प्रेमपत्र-
"इन दिनों न सोचा मैं खुद भी जुदा,
आप को हीं है चाहा, है समझा खुदा।"
तुम्हारा इकरार,
तुम्हारा आग्रह-
"आज रूक जाइए, कल चले जाइएगा,
हमें यूँ तड़पाकर क्या पाइएगा ।"
मेरा समर्पण
और तुम्हारे सपनों का
आसमानी होना-
"सजधज वो आई घर मेरे,
अब नभ तुम हीं अगुवाई करो।"
अब तक संभाल रखे हैं
मैंने
अपने सीने पर
तुम्हारे सारे शब्द।

लेकिन वक्त के दीमक-
जो तुमने हीं दिये हैं,
निगल रहे हैं,जब्त कर रहे हैं,
मेरे यकीं को,
तुम्हारे शब्दों को।

सच कहूँ-
तुम्हे पता है शायद कि
लिखना भारी काम नहीं,
उनपर अमल करना,
शब्दों को जीना-
कई जन्मों से भारी है।
इसलिए
अपनी कविताओं में,
शब्दों के बहाने,
दो क्षण में
दस जिंदगी जीते हो तुम।
-लेकिन-
तुम्हें पता नहीं कि
जो जीवित है,
तुम्हारे हीं कुछ शब्दों के भरोसे,
उसकी जिंदगी के
कई पृष्ठ उसर हैं
और "शायद"
तुम्हारी भी..............।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Thursday, April 05, 2007

मैं

सीधी-सादी बोली से कुछ शब्द उधार मैं लेता हूँ,
फिर बाणिक को मैं ब्याज-सहित अपना काव्यालय देता हूँ।

माँ भारती के चरणों से अपनी जिह्वा तर करता हूँ,
फिर भारत माँ के मस्तक पर अंतरिक्ष का रूख मैं जड़ता हूँ।

मैं उर्दू के अल्फाज़ जब भी अपने छंदों में भरता हूँ,
गंगा के जल को पाँच वक्त अशआर नज़र मैं करता हूँ।

मैं पिता की तनी कमर बनकर सीने को संबल देता हूँ,
सफ़हों पे उनके सपनों को स्याही के दम पर सेता हूँ।

मैं बहना की चुन्नी बनकर उसके माथे पर रहता हूँ,
राखी की लाज लेखनी में भरता हूँ, खुद को लहता हूँ।

मैं प्रियतमा की मेंहदी में बसे प्रेम-चंद्र पर रजता हूँ,
उसके ख्वाबों का बन चकोर हर एक छंद में सजता हूँ।

मैं माँ को उसके बेटे का हर एक रूप दिखलाता हूँ,
अपनी मैय्यत का बोध करा उन आँखों के मोती पाता हूँ।

मैं अमर के शब्दचित्र में उतरी एक छोटी-सी कविता हूँ,
है शुक्र कि मैं भी उस जैसा कई लोकों का रचयिता हूँ।

शब्द-कोष ->
अशआर=गज़ल/शायरी
सफहों= कागज़
लहना= पाना
रजना=रंगा जाना
अमर=प्रभु
-विश्व दीपक 'तन्हा'

Saturday, March 24, 2007

अश्क

अश्कों से इश्क की है यारी , क्या कहें,
यही शौक , है यही दुश्वारी , क्या कहें।

कीमत खुदा की बेखुदी में भूलता रहा,
उसने भी की रखी थी तैयारी , क्या कहें।

ता-उम्र होश देने के ख्वाहिशमंद थे,
दी आपने जिगर की लाचारी ,क्या कहें।

सदियों ने मेरी किस्मत को लूटा इस कदर,
है आई बारहा मेरी बारी, क्या कहें।

यूँ बिस्मिल है 'तन्हा' अपना दर्द कह रहा,
कब की हीं खो चुका है खुद्दारी,क्या कहें।


-विश्व दीपक 'तन्हा'

Wednesday, March 07, 2007

कुछ हाइकू (मेरे प्रथम प्रयास)

१. पूजा की थाली
मटमैली कसैली
तीखी जिंदगी ।

२. सधा दिमाग
बेसुध दिन-रैन
इंजीनियर ।

३. फिट तिजोड़ी
अनफिट लकीरें
सफल नेता ।

४. किन्नर प्रभु
लाचार समर्पण
बाबरी ध्वंस ।

५. बुभुक्षु बड़ी
गरीब की किस्म्त
जों फटा पेट ।

६. रक्तिम ट्रेन
नैसर्गिक संदेह
शराबी खुदा ।

७. संगीन न्याय
सद्दाम और बुश
पवित्र पापी ।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Thursday, February 08, 2007

कठफोड़्वा

रूह काट कर, नमक डाल कर रखा है,
तुम्हारे दर्द को अपने दर्द से चखा है।

पत्थर हूँ,पत्थरों का अहसानमंद हूँ,
सीने की आग साँसों में संभाल कर रखा है।

हिंदू हूँ, मुसलमां से रश्क क्यों रखूँ,
खुदा ने खून संग-संग उबाल कर रखा है।

हाकिम से वक्त लेकर दुनिया में हूँ आया,
रकीबों ने मेरे वास्ते जाल कर रखा है।

हैं लाख के घरोंदे , कई लाख जिस्म हैं,
इक नाम ने माचिस से बवाल कर रखा है।

मंदिर में नमाजी हैं ,मस्जिद में पुजारी,
इस मौत ने धर्म से सवाल कर रखा है।

कठफोड़वा बना है 'तन्हा' क्या आजकल,
काठ की आँखों पर करवाल कर रखा है।

-विश्व दीपक 'तन्हा'