Monday, May 22, 2006

मेरा प्रेम असीम है,अथाह है

सूरज के सूर्ख रूआँसों से,
दिन की ढलती हुई आसों से,
जल की जलती हुई साँसों से,
पथ के पथहीन कयासों से,
वक्त के मुरझाये पलासों से,
दरख्त प्रेम के गिरते नही,
पल कुशल-क्षेम के फिरते नहीं.
रजनी के रज की उमंगों से,
जगमग जुगनू औ' पतंगों से,
मंद मारूत की महकी तरंगों से,
कोपलों से झरतें अनंगों से,
पल के परिमल सारंगों से,
चाहत के उपवन खिलते हैं,
तब चित्त के चितवन मिलते हैं.
मैं खुद का प्रेम अथाह कहूँ,
जग से नभ तक का राह कहूँ,
उन पलकों को पनाह कहूँ,
मलयज कहूँ, दिल का शाह कहूँ,
या जीवन का हीं निर्वाह कहूँ,
निस्सीम प्रेम कम शब्द यहाँ,
प्यासा है हृदय, दिखे अब्द यहाँ.
-तन्हा कवि

1 comment:

Mohinder56 said...

तन्हा जी
वाह वाह क्या उपमायें दी हैं आप ने आनन्द आ गया. उत्तम रचना .

मेरा अज़म इतना बुलन्द है, कि पराये शोलों से डर नही
मुझे खौफ आतिशे गुल से है, कही ये चमन को जला न दे